उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
इस तरह सोचते हुए वह उठी कि किवाड़ खटखटाऊं, जो कुछ होना है, हो जाए। ऐसा कौन-सा सुख भोग रही हूं, जिसके लिए यह आपत्ति सहूं? यह मुझे कौन सोने का कौर खिला देते हैं, कौन फूलों की सेज पर सुला देते हैं? दिन-भर छाती फाड़कर काम करती हूं, तब एक रोटी खाती हूं। उस पर यह धौंस। लेकिन गजाधर के डंडे को देखते ही फिर छाती दहल गई। पशुबल ने मनुष्य को परास्त कर दिया।
अकस्मात् सुमन ने दो कांस्टेबलों को कंधे पर लट्ट रखे आते देखा। अंधकार में वह बहुत भयंकर दिख पड़ते थे। सुमन का रक्त सूख गया, कहीं छिपने की जगह न थी। सोचने लगी कि यदि यही बैठी रहूं, तो यह सब अवश्य ही कुछ पूछेंगे, तो क्या उत्तर दूंगी। वह झपटकर उठी और जोर से किवाड़ खटखटाया। चिल्लाकर बोली– दो घड़ी से चिल्ला रही हूं, सुनते ही नहीं।
गजाधर चौंका। पहली नींद पूरी हो चुकी थी। उठकर किवाड़ खोल दिए। सुमन की आवाज में कुछ भय था, कुछ घबराहट। कृत्रिम क्रोध के स्वर में कहा– वाह रे सोने वाले! घोड़े बेचकर सोए हो क्या? दो घड़ी से चिल्ला रही हूं, मिनकते ही नहीं, ठंड के मारे हाथ-पांव अकड़ गए।
गजाधर निःशंक होकर बोला– मुझसे उड़ो मत। बताओ, सारी रात कहां रहीं?
सुमन निर्भय होकर बोली– कैसी रात, नौ बजे सुभद्रादेवी के घर गईं। दावत थी, बुलावा आया था। दस बजे उनके यहां से लौट आई। दो घंटे से तुम्हारे द्वार पर खड़ी चिल्ला रही हूं। बारह बजे होंगे, तुम्हें अपनी नींद में कुछ सुध भी रहती है।
गजाधर– तुम दस बजे आई थीं?
सुमन ने दृढ़ता से कहा– हां-हां, दस बजे।
गजाधर– बिल्कुल झूठ। बारह का घंटा अपने कानों से सुनकर सोया हूं।
सुमन– सुना होगा, नींद में सिर-पैर की खबर नहीं रहती, ये घंटे गिनने बैठे थे।
गजाधर– अब ये धांधली न चलेगी। साफ-साफ बताओ, तुम अब तक कहां रहीं? मैं तुम्हारा रंग आजकल देख रहा हूं। अंधा नहीं हूं। मैंने भी त्रियाचरित्र पढ़ा है। ठीक-ठीक बता दो, नहीं तो आज जो कुछ होना है, हो जाएगा।
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