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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सुमन– एक बार तो कह दिया कि मैं दस-ग्यारह बजे यहां से आ गई। अगर तुम्हें विश्वास नहीं आता, न आवे। जो गहने गढ़ाते हो, मत गढ़ाना। रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी। जब देखो, म्यान से तलवार बाहर ही रहती है, न जाने किस बिरते पर।

यह कहते-कहते सुमन चौंक गई। उसे ज्ञात हुआ कि मैं सीमा से बाहर हुई जाती हूँ। अभी द्वार पर बैठी हुई उसने जो-जो बातें सोची थीं और मन में जो बातें स्थिर की थी, वह सब उसे विस्मृति हो गईं। लोकाचार और हृदय में जमे हुए विचार हमारे जीवन में आकस्मिक परिवर्तन नहीं होने देते।

गजाधर सुमन की यह कठोर बातें सुनकर सन्नाटें में आ गया। यह पहला ही अवसर था कि सुमन यों उसके मुंह आई थी। क्रोधोन्मत्त होकर बोला– क्या तूं चाहती है कि जो कुछ तेरा जी चाहे, किया करे और मैं चूं न करूं? तू सारी रात न जाने कहां रही, अब जो पूछता हूं तो कहती है, मुझे तुम्हारी परवाह नहीं है, तुम मुझे क्या कर देते हो? मुझे मालूम हो गया कि शहर का पानी तुझे भी लगा, तूने भी अपनी सहेलियों का रंग पकड़ा। बस, अब मेरे साथ तेरा निबाह न होगा। कितना समझाता रहा कि इन चुड़ैलों के साथ न बैठ, मेले-ठेले मत जा, लेकिन तूने न सुना– न सुना। मुझे तू जब तक बता न देगी कि तू सारी रात कहां रही, तब तक मैं तुझे घर में बैठने न दूंगा। न बतावेगी, तो समझ ले कि आज से तू मेरी कोई नहीं। तेरा जहां जी चाहे जा, जो मन में आवे कर।

सुमन ने कातर भाव से कहा– वकील साहब के घर को छोड़कर मैं और कहीं नहीं गई; विश्वास न हो तो आप जाकर पूछ लो। वहीं चाहे जितनी देर हो। गाना हो रहा था, सुभद्रादेवी ने आने नहीं दिया।

गजाधर ने लांछनायुक्त शब्दों में कहा– अच्छा, तो अब वकील साहब से मन मिला है, यह कहो! फिर भला, मजूर की परवाह क्यों होने लगी?

इस लांछन ने सुमन के हृदय पर कुठाराघात का काम किया। झूठा इलजाम कभी नहीं सहा जाता। वह सरोष होकर बोली– कैसी बातें मुंह से निकालते हो? हक-नाहक एक भलेमानस को बदनाम करते हो! मुझे आज देर हो गई है। मुझे जो चाहो कहो, मारो, पीटो; वकील साहब को क्यों बीच में घसीटते हो? वह बेचारे तो जब तक मैं घर में रहती हूं, अंदर कदम नहीं रखते।

गजाधर– चल छोकरी, मुझे न चरा। ऐसे-ऐसे कितने भले आदमियों को देख चुका हूं। वह देवता हैं, उन्हीं के पास जा। यह झोंपड़ी तेरे रहने योग्य नहीं है। तेरे हौंसले बढ़ रहे हैं। अब तेरा गुजर यहां न होगा।

सुमन देखती थी कि बात बढ़ती जाती है। यदि उसकी बातें किसी तरह लौट सकतीं तो उन्हें लौटा लेती, किन्तु निकला हुआ तीर कहां लौटता है? सुमन रोने लगी और बोली– मेरी आंखें फूट जाएं, अगर मैंने उनकी तरफ ताका भी हो। मेरी जीभ गिर जाए, अगर मैंने उनसे एक बात की हो। जरा मन बहलाने सुभद्रा के पास चली जाती हूं। अब मना करते हो, न जाऊंगी।

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