उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
उधर गजाधर को ज्योंही मालूम हुआ कि सुमन पद्मसिंह के घर गई है, उसका संदेह पूरा हो गया है। वह घूम-घूमकर शर्माजी को बदनाम करने लगा। पहले विट्ठलदास के पास गया। उन्होंने उसकी कथा को वेद-वाक्य समझा। यह देश का सेवक और सामाजिक अत्याचारों का शत्रु– उदारता और अनुदारता का विलक्षण संयोग था। उसके विश्वासी हृदय में सारे जगत के प्रति सहानुभूति थी, किंतु अपने वादी के प्रति लेशमात्र भी सहानुभूति न थी। वैमनस्य में अंधविश्वास की चेष्टा होती है। जब से पद्मसिंह ने मुजरे का प्रस्ताव किया था, विट्ठलदास को उनसे द्वेष हो गया था। वे यह समाचार सुनते ही फूले न समाए। शर्माजी के मित्र और सहयोगियों के पास जा-जाकर इसकी सूचना दे आए। लोगों को कहते, देखा आपने। मैं कहता न था कि यह जलसा अवश्य रंग लाएगा। एक ब्राह्मणी को उसके घर से निकालकर अपने घर में रख लिया। बेचारा पति चारों ओर से रोता फिरता है। यह है उच्च शिक्षा का आदर्श। मैं तो ब्राह्मणी को उनके यहां देखते ही भांप गया था कि दाल में कुछ काला है। लेकिन यह न समझता था कि अंदर-ही-अंदर यह खिचड़ी पक रही है।
आश्चर्य तो यह था कि जो लोग शर्माजी के स्वभाव से भली-भांति परिचित थे, उन्होंने भी इस पर विश्वास कर लिया।
दूसरे दिन प्रातःकाल जीतन किसी काम से बाहर गया। चारों तरफ यही चर्चा सुनी। दुकानदार पूछते थे, क्यों जीतन, नई मालकिन के क्या रंग-ढंग हैं? जीतन यह आलोचनापूर्ण बातें सुनकर घबराया हुआ घर आया और बोला– भैया, बहूजी ने जो गजाधर की दुलहिन को घर में ठहरा लिया है, इस पर बाजार में बड़ी बदनामी हो रही है। ऐसा मालूम होता है कि यह गजाधर से लड़कर आई है।
वकील साहब ने यह सुना तो सन्नाटे में आ गए। कचहरी जाने के लिए अचकन पहन रहे थे, एक हाथ आस्तीन में था, दूसरा बाहर। कपड़े पहनने की सुधि न रही। उन्हें जिस बात का भय था, वह हो ही गई। अब उन्हें गजाधर की लापरवाही का मर्म ज्ञात हुआ। मूर्तिवत खड़े सोचते रहे कि क्या करूं? इसके सिवा और कौन-सा उपाय है कि उसे घर से निकाल दूं। उस पर जो बीतनी हो बीते, मेरा क्या वश है? किसी तरह बदनामी से तो बचूं। सुभद्रा पर जी में झुंझलाए इसे क्या पड़ी थी कि उसे अपने घर में ठहराया? मुझसे पूछा तक नहीं। उसे तो घर में बैठे रहना है, दूसरों के सामने आंखें तो मेरी नीची होंगी। मगर यहां से निकाल दूंगा तो बेचारी जाएगी कहां? यहां तो उसका कोई ठिकाना नहीं मालूम होता। गजाधर अब उसे शायद अपने घर में न रखेगा। आज दूसरा दिन है, उसने खबर तक नहीं ली। इससे तो यह विदित होता है कि उसने उसे छोड़ने का निश्चय कर लिया है। दिल में मुझे दयाहीन और क्रूर समझेगी। लेकिन बदनामी से बचने का यही एकमात्र उपाय है। इसके सिवा और कुछ नहीं हो सकता। यह विवेचना करके वह जीतन से बोले– तुमने अब तक मुझसे क्यों न कहा?
जीतन– सरकार, मुझे आज ही तो मालूम हुआ है, नहीं तो जान लो भैया, मैं बिना कहे नहीं रहता।
शर्माजी– अच्छा, तो घर में जाओ और सुमन से कहो कि तुम्हारे यहां रहने से उनकी बदनामी हो रही है। जिस तरह बन पड़े, आज ही यहां से चली जाए। जरा आदमी की तरह बोलना, लाठी मत मारना। खूब समझाकर कहना कि उनका कोई वश नहीं है।
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