उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
जीतन बहुत प्रसन्न हुआ। उसे सुमन से बड़ी चिढ़ थी, जो नौकरों को उन छोटे मनुष्यों से होती है, जो उनके स्वामी के मुंहलगे होते हैं। सुमन की चाल उसे अच्छी नहीं लगती थी। बुड्ढे लोग साधारण बनाव-श्रृंगार को भी संदेह की दृष्टि से देखते हैं। वह गंवार था। काले को काला कहता था, उजले को उजला; काले को उजला करने का ढंग उसे न आता था। यद्यपि शर्माजी ने समझा दिया था कि सावधानी से बातचीत करना, किंतु उसने जाते-ही-जाते सुमन का नाम लेकर जोर से पुकारा। सुमन शर्माजी के लिए पान लगा रही थी। जीतन की आवाज सुनकर चौंक पड़ी और कातर नेत्रों से उसकी ओर ताकने लगी।
जीतन ने कहा– ताकती क्या हो, वकील साहब का हुक्म है कि आज ही यहां से चली जाओ। सारे देश-भर में बदनाम कर दिया। तुमको लाज नहीं है, उनको तो नाम की लाज है। बांड़ा आप गए, चार हाथ की पगहिया भी लेते गए।
सुभद्रा के कान में भनक पड़ी, आकर बोली– क्या है जीतन, क्या कह रहे हो?
जीतन– कुछ नहीं, सरकार का हुक्म है कि यह अभी यहां से चली जाएं। देशभर में बदनामी हो रही है।
सुभद्रा– तुम जाकर जरा उन्हीं को यहां भेज दो।
सुमन की आँखों में आंसू भरे थे। खड़ी होकर बोली– नहीं बहूजी, उन्हें क्यों बुलाती हो? कोई किसी के घर में जबरदस्ती थोड़े ही रहता है। मैं अभी चली जाती हूं। अब इस चौखट के भीतर फिर पांव न रखूंगी।
विपत्ति में हमारी मनोवृत्तियां बड़ी प्रबल हो जाती हैं। उस समय बेमुरौवती घोर अन्याय प्रतीत होती है और सहानुभूति असीम कृपा। सुमन को शर्माजी से ऐसी आशा न थी। उस स्वाधीनता के साथ जो आपत्तिकाल में हृदय पर अधिकार पा जाती है, उसने शर्माजी को दुरात्मा, भीरु, दयाशून्य तथा नीच ठहराया। तुम आज अपनी बदनामी को डरते हो, तुमको इज्जत बड़ी प्यारी है। अभी कल तक एक वेश्या के साथ बैठे हुए फूले न समाते थे, उसके पैरों तले आंख बिछाते थे, तब इज्जत न जाती थी। आज तुम्हारी इज्जत में बट्टा लग गया है।
उसने सावधानी से संदूकची उठा ली और सुभद्रा को प्रणाम करके घर से चली गई।
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