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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


भोली– बदनाम हो जाओगी, क्यों?

सुमन– (झेंपकर) नहीं, यह बात नहीं।

भोली– खानदान की नाक कट जाएगी?

सुमन– तुम तो हंसी उड़ाती हो।

भोली– फिर क्या, पंडित गजाधरप्रसाद पांडे नाराज हो जाएंगे?

सुमन– अब मैं तुमसे क्या कहूं?

सुमन के पास यद्यपि भोली का जवाब देने के लिए कोई दलील न थी। भोली ने उसकी शंकाओं का मजाक उड़ाकर उन्हें पहले से ही निर्बल कर दिया था। यद्यपि अधर्म और दुराचार से मनुष्य का जो स्वाभाविक घृणा होती है, वह उसके हृदय को डावांडोल कर रही थी। वह इस समय अपने भावों को शब्दों में न कह सकती थी। उसकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो किसी बाग में पके फल को देखकर ललचाता है, पर माली के न रहते हुए भी उन्हें तोड़ नहीं सकता।

इतने में भोली ने कहा– तो कितने किराये तक का मकान चाहती हो, मैं अभी अपने मामा को बुलाकर ताकीद कर दूं।

सुमन– यही दो-तीन रुपए।

भोली– और क्या करोगी?

सुमन– सिलाई का काम कर सकती हूं।

भोली– और अकेली ही रहोगी?

सुमन– हां और कौन है?

भोली– कैसी बच्चों की-सी बातें कर रही हो। अरी पगली, आंखों से देखकर अंधी बनती है। भला, अकेले घर में एक दिन भी तेरा निबाह होगा? दिन-दहाड़े आबरू लुट जाएगी। इससे तो हजार दर्जे यही अच्छा है कि तुम अपने शौहर के ही पास चली जाओ।

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