उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
पद्मसिंह– दूध ही बंद कर दो।
सुभद्रा– हां, बंद कर दो। मगर तुम न पीओगे, सदन के लिए तो लेना ही होगा।
शर्माजी फिर सोचने लगे। पान-तंबाकू का खर्च दस रुपए मासिक से कम न था, और भी कई छोटी-छोटी मदों में कुछ-न-कुछ बचत हो सकती थी। किंतु उनकी चर्चा करने से सुभद्रा की अप्रसन्नता का भय था। सुभद्रा की बातों से उन्हें स्पष्ट विदित हो गया था कि इस विषय में उसे मेरे साथ सहानुभूति नहीं है। मन में बाहर के खर्च का लेखा जोड़ने लगे। अंत में बोले– क्यों, रोशनी और पंखे के खर्च में कुछ किफायत हो सकती है?
सुभद्रा– हां, हो सकती है, रोशनी की क्या आवश्यकता है, सांझ ही से बिछावन पर पड़े रहें। यदि कोई मिलने-मिलाने आएगा, तो आप ही चिल्लाकर चला जाएगा, या घूमने निकल गए, नौ बजे लौटकर आए, और पंखा तो हाथ से भी झला जा सकता है। क्या जब बिजली नहीं थी, तो लोग गर्मी के मारे बावले हो जाते थे?
पद्मसिंह– घोड़े के रातिब में कमी कर दूं?
सुभद्रा– हां, यह दूर की सूझी। घोड़े को रातिब दिया ही क्यों जाए, घास काफी है। यही न होगा कि कूल्हे पर हड्डियां निकल आएंगी। किसी तरह मर-जीकर कचहरी तक ले ही जाएगा, यह तो कोई नहीं कहेगा कि वकील साहब के पास सवारी नहीं है।
पद्मसिंह– लड़कियों की पाठशाला को दो रुपए मासिक चंदा देता हूं, नौ रुपए क्लब का चंदा है, तीन रुपए मासिक अनाथालय को देता हूं। यह सब चंदे बंद कर दूं तो कैसा हो।
सुभद्रा– बहुत अच्छा होगा। संसार की रीति है कि पहले अपने घर में दीया जलाकर मस्जिद में जलाते हैं।
शर्माजी सुभद्रा की व्यंग्यपूर्ण बातों को सुन-सुनकर मन में झुंझला रहे थे, पर धीरज के साथ बोले– इस तरह कोई पंद्रह रुपए मासिक तो मैं दूंगा, शेष पांच रुपए का बोझ तुम्हारे ऊपर है। मैं हिसाब-किताब नहीं पूछता, किसी तरह संख्या पूरी करो।
सुभद्रा– हां, हो जाएगा, कुछ कठिन नहीं है। भोजन एक ही समय बने, दोनों समय बनने की क्या जरूरत है? संसार में करोड़ों मनुष्य एक ही समय खाते हैं, किंतु बीमार या दुबले नहीं होते।
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