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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


शर्माजी अधीर हो गए। घर की लड़ाई से उनका हृदय कांपता था, पर यह चोट न सही गई। बोले– तुम क्या चाहती हो कि सदन के लिए मास्टर न रखा जाए और वह यों ही अपना जीवन नष्ट करे? चाहिए तो यह था कि तुम मेरी सहायता करती, उल्टे और जी जला रही हो। सदन मेरे उसी भाई का लड़का है, जो अपने सिर पर आटे-दाल की गठरी लादकर मुझे स्कूल में दाखिल कराने आए थे। मुझे वह दिन भूले नहीं हैं। उनके उस प्रेम का स्मरण करता हूं, तो जी चाहता है कि उनके चरणों में गिरकर घंटो रोऊं। तुम्हें अब अपने रोशनी और पंखे के खर्च में, पान-तंबाकू के खर्च में, घोड़े-साईस के खर्च में किफायत करना भारी मालूम होता है, किंतु भैया मुझे वार्निश वाले जूते पहनाकर आप नंगे पांव रहते थे। मैं रेशमी कपड़े पहनता था, वे फटे कुर्ते पर ही काटते थे। उनके उपकारों और भलाइयों का इतना भारी बोझ मेरी गर्दन पर है कि मैं इस जीवन में उससे मुक्त नहीं हो सकता। सदन के लिए मैं प्रत्येक कष्ट सहने को तैयार हूं। उसके लिए यदि मुझे पैदल कचहरी जाना पड़े, उपवास करने पड़े, अपने हाथों से उसके जूते साफ करने पड़ें, तब भी मुझे इनकार न होगा; नहीं तो मुझ जैसा कृतघ्न संसार में न होगा।

ग्लानि से सुभद्रा का मुखकमल कुम्हला गया। यद्यपि शर्माजी ने वे बातें सच्चे दिल से कहीं थीं, पर उसने यह समझा कि यह मुझे लज्जित करने के निमित्त कही गई हैं। सिर नीचा करके बोली– तो मैंने यह कब कहा कि सदन के लिए मास्टर न रखा जाए? जो काम करना ही है, उसे कर डालिए। जो कुछ होगा, देखा जाएगा। जब दादाजी ने आपके लिए इतने कष्ट उठाए है तो यही उचित है कि आप भी सदन के लिए कोई बात उठा न रखें। मुझसे जो कुछ करने को कहिए, वह करूं। आपने अब तक कभी इस विषय पर जोर नहीं दिया था, इसलिए मुझे यह भ्रम हुआ कि यह कोई आवश्यक खर्च नहीं है। आपको पहले ही दिन से मास्टर का प्रबंध करना चाहिए था। इतने आगे-पीछे का क्या काम था? अब तक तो यह थोड़ा-बहुत पढ़ भी चुका होता। इतनी उम्र गंवाने के बाद जब पढ़ने का विचार किया है, तो उसका एक दिन भी व्यर्थ न जाना चाहिए।

सुभद्रा ने तत्क्षण अपनी लज्जा का बदला ले लिया। पंडितजी को अपनी भूल स्वीकार करनी पड़ी। यदि अपना पुत्र होता, तो उन्होंने कदापि इतना सोच-विचार न किया होता।

सुभद्रा को अपने प्रतिवाद पर खेद हुआ। उसने पान बनाकर शर्माजी को दिया। यह मानो संधिपत्र था। शर्माजी ने पान ले लिया, संधि स्वीकृत हो गई।

जब वह चलने लगे तो सभद्रा ने पूछा– कुछ सुमन का पता चला?

शर्माजी– कुछ भी नहीं। न जाने कहां गायब हो गई, गजाधर भी नहीं दिखाई दिया। सुनता हूं, घर-बार छोड़कर किसी तरफ निकल गया है।

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