उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
तीन ही चार मास में उसका संकोच उड़ गया। फिटन पर दो आदमी दूतों की तरह उसके सिर पर सवार रहते। इसलिए वह इस बाग में फूलों में हाथ लगाने का साहस न कर सकता था। वह सोचने लगा कि किसी भांति इन दूतों से गला छुड़ाऊं। सोचते-सोचते उसे एक उपाय सूझ गया। एक दिन उसने शर्माजी से कहा– चाचा, मुझे एक अच्छा-सा घोड़ा ले दीजिए। फिटन पर अपाहिजों की तरह बैठे रहना कुछ अच्छा नहीं मालूम होता। घोड़े पर सवार होने से कसरत भी हो जाएगी और मुझे सवारी का भी अभ्यास हो जाएगा।
जिस दिन से सुमन गई थी, शर्माजी को कुछ चिंतातुर रहा करते थे। मुवक्किल लोग कहते कि आजकल इन्हें न जाने क्या हो गया है। बात-बात पर झुंझला जाते हैं। हमारी बात ही न सुनेंगे तो बहस क्या करेंगे। जब हमको मेहनताना देना है, तो क्या यही एक वकील हैं? गली-गली तो मारे फिरते हैं। इससे शर्माजी की आमदनी दिन-प्रतिदिन कम होती जाती थी। यह प्रस्ताव सुनकर चिंतित स्वर में बोले– अगर इसी घोड़े पर जीन खिंचा लो तो कैसा हो? दो-चार दिन में निकल जाएगा।
सदन– जी नहीं; बहुत दुर्बल है, सवारी में न ठहरेगा। कोई चाल भी तो नहीं; न कदम, न सरपट। कचहरी से थका-मांदा आएगा तो क्या चलेगा।
शर्माजी– अच्छा, तलाश करूंगा, कोई जानवर मिला तो ले लूंगा।
शर्माजी ने चाहा कि इस तरह बात टाल दूं। मामूली घोड़ा भी ढाई-तीन सौ से कम में न मिलेगा, उस पर कम-से-कम पच्चीस रुपए मासिक का खर्च अलग। इस समय वह इतना खर्च उठाने में समर्थ न थे, किंतु सदन कब माननेवाला था? नित्यप्रति उनसे तकाजा करता, यहां तक कि दिन में कई बार टोकने की नौबत आ पहुंची। शर्माजी उसकी सूरत देखते ही सूख जाते। यदि उससे अपनी आर्थिक दशा साफ-साफ कह देते, तो सदन चुप हो जाता, लेकिन अपनी चिंताओं की रामकहानी सुनाकर वह उसे कष्ट में नहीं डालना चाहते थे।
सदन ने अपने दोनों साइसों से कह रखा था कि कहीं घोड़ा बिकाऊ हो तो हमें कहना। साइसों ने दलाली के लोभ से दत्तचित्त होकर तलाश की। घोड़ा मिल गया। डिगवी नाम के एक साहब विलायत जा रहे थे। उनका घोड़ा बिकनेवाला था। सदन खुद गया, घोड़े को देखा, उस पर सवार हुआ, चाल देखी। मोहित हो गया। शर्माजी से आकर कहा– चलिए, घोड़ा देख लीजिए, मुझे बहुत पसंद है।
शर्माजी को अब भागने का कोई रास्ता न रहा, जाकर घोड़े को देखा, डिगवी साहब से मिले, दाम पूछे। उन्होंने चार सौ रुपये मांगे, इससे कौड़ी कम नहीं।
अब इतने रुपए कहां से आएं? घर में अगर दौ-सौ रुपए थे तो वह सुभद्रा के पास थे, और सुभद्रा से इस विषय में शर्माजी को सहानुभूति की लेशमात्र भी आशा न थी। उपकारी बैंक के मैनेजर बाबू चारुचन्द्र से उनकी मित्रता थी। उनसे उधार लेने का विचार किया, लेकिन आज तक शर्माजी को ऋण मांगने का अवसर नहीं पड़ा था। बार-बार इरादा करते और फिर हिम्मत हार जाते। कहीं वह इनकार कर गए तब? इस इनकार का भीषण भय उन्हें सता रहा था। वह यह बिल्कुल न जानते थे कि लोग कैसे महाजन पर अपना विश्वास जमा लेते हैं। कई बार कलम-दवात लेकर रुक्का लिखने बैठे, किंतु लिखें क्या, यह न सूझा।
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