उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
इसी बीच सदन डिगवी साहब के यहां से घोड़ा ले आया। जीन-साज का मूल्य ५० रुपए और हो गया। दूसरे दिन रुपए चुका देने का वादा हुआ। केवल रात-भर की मोहलत थी, प्रातःकाल रुपए देना परमावश्यक था। शर्माजी की हैसियत के आदमी के लिए इतने रुपए का प्रबन्ध करना कोई मुश्किल न था। किंतु उन्हें चारों ओर अंधकार दिखाई देता था। उन्हें आज अपनी क्षुद्रता का ज्ञान हुआ। जो मनुष्य कभी पहाड़ पर नहीं चढ़ा है, उसका सिर एक छोटे से टीले पर भी चक्कर खाने लगता है। इस दुरावस्था में सुभद्रा के सिवा उन्हें कोई अवलंब न सूझा। उसने उनकी रोनी सूरत देखी तो पूछा–
आज इतने उदास क्यों हो? जी तो अच्छा है।
शर्माजी ने सिर झुकाकर उत्तर दिया– हां, जी तो अच्छा है।
सुभद्रा– तो चेहरा क्यों उतरा है?
शर्माजी– क्या बताऊं, कुछ कहा नहीं जाता, सदन के मारे हैरान हूं। कई दिन से घोड़े की रट लगाए हुए था। आज डिगवी साहब के यहां से घोड़ा ले आया, साढ़े चार सौ रुपए के मत्थे डाल दिया।
सुभद्रा ने विस्मित होकर कहा– अच्छा, यह सब हो गया और मुझे खबर ही नहीं।
शर्माजी– तुमसे कहते हुए डर मालूम होता था।
सुभद्रा– डर की कौन बात थी? क्या मैं सदन की दुश्मन थी, जो जल-भुन जाती? उसके खेलने-खाने के क्या और दिन आएंगे? कौन बड़ा खर्च है, तुम्हें ईश्वर कुशल से रखें, ऐसे चार-पांच सौ रुपए कहां आएंगे और कहां जाएंगे। लड़के का मन तो रह जाएगा। उसी भाई का तो बेटा है, जिसने आपको पाल-पोसकर आज इस योग्य बनाया।
शर्माजी इस व्यंग्य के लिए तैयार थे। इसीलिए उन्होंने सदन की शिकायत करके यह बात छेड़ी थी। किंतु वास्तव में उन्हें सदन का यह व्यसन दुःखजनक नहीं मालूम होता था, जितनी अपनी दारुण धनहीनता। सुभद्रा की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए उसके हृदय में पैठना जरूरी था। बोले– चाहे जो कुछ हो, मुझे तो तुमसे कहते हुए डर लगता है, मन की बात कहता हूं। लड़कों का खाना-खेलना सबको अच्छा लगता है, पर घर में पूंजी हो तब। दिन-भर से इसी फिक्र में पड़ा हुआ हूं। कुछ बुद्धि काम नहीं करती। सबेरे डिगवी साहब का आदमी आएगा, उसे क्या उत्तर दूंगा? बीमार भी पड़ जाता, तो एक बहाना मिल जाता।
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