लोगों की राय

उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

361 पाठक हैं

यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


उसे रुपयों का जरा भी लोभ न था। हां, एक ऐसे अनावश्यक कार्य के लिए उन्हें निकालने में कष्ट होता था, पर पंडितजी की रोनी सूरत देखकर उसे दया आ गई, बोली– आपने बैठे-बिठाए यह चिंता अपने सिर ली। सीधी-सी तो बात थी। कह देते, भाई रुपए नहीं हैं, तब तक किसी तरह काम चलाओ। इस तरह मन बढ़ाना कौन-सी अच्छी बात है? आज घोड़े की जिद है, कल मोटरकार की धुन होगी, तब क्या कीजिएगा? माना कि दादाजी ने आपके साथ बड़े अच्छे सलूक किए हैं, लेकिन सब काम अपनी हैसियत देखकर ही किए जाते हैं। दादाजी यह सुनकर आपसे खुश न होंगे।

यह कहकर वह झमककर उठी और संदूक में से रुपयों की पांच पोटलियां निकाल लाई, उन्हें पति के सामने पटक दिया और कहा– यह लीजिए पांच सौ रुपए हैं, जो चाहे कीजिए। रखे रहते तो आप ही के काम आते, पर ले जाइए, किसी भांति आपकी चिंता तो मिटे। अब संदूक में फूटी कौड़ी भी नहीं है।

पंडितजी ने हकबकाकर रुपयों की ओर कातर नेत्रों से देखा, पर उन पर टूटे नहीं। मन का बोझ हल्का अवश्य हुआ, चेहरे से चित्त की शांति झलकने लगी। किंतु वह उल्लास, वह विह्वलता, जिसकी सुभद्रा को आशा थी, दिखाई न दी। एक ही क्षण में वह शांति की झलक भी मिट गई। खेद और लज्जा का रंग प्रकट हुआ। इन रुपयों में हाथ लगाना उन्हें अतीव अनुचित प्रतीत हुआ। सोचने लगे, मालूम नहीं सुभद्रा ने किस नीयत से यह रुपये बचाए थे, मालूम नहीं, इनके लिए कौन-कौन से कष्ट सहे थे।

सुभद्रा ने पूछा– सेंत का धन पाकर भी प्रसन्न नहीं हुए?

शर्माजी ने अनुग्रहपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा– क्या प्रसन्न होऊं? तुमने नाहक यह रुपए निकाले। मंि जाता हूं, घोड़े को लौटा देता हूं। कह दूंगा, ‘सितारा-पेशानी’ है या और कोई दोष लगा दूंगा। सदन को बुरा लगेगा, इसके लिए क्या करूं।

यदि रुपए देने के पहले सुभद्रा ने यह प्रस्ताव किया होता, तो शर्माजी बिगड़ जाते। इसे सज्जनता के विरुद्ध समझते और सुभद्रा को आड़े हाथों लेते, पर इस समय सुभद्रा के आत्मोत्सर्ग ने उन्हें वशीभूत कर लिया था। समस्या यह थी कि घर में सज्जनता दिखाएं या बाहर? उन्होंने निश्चय किया कि घर में इसकी आवश्यकता है, किंतु हम बाहरवालों की दृष्टि में मान-मर्यादा बनाए रखने के लिए घरवालों की कब परवाह करते हैं?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book