उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सुभद्रा विस्मित होकर बोली– यह क्या? इतनी जल्दी कायापलट हो गई। जानवर लेकर उसे लौटा दोगे, तो क्या बात रह जाएगी? यदि डिगवी साहब फेर भी लें, तो यह उनके साथ कितना अन्याय है? वह बेचारे विलायत जाने के लिए तैयार बैठे हैं। उन्हें यह बात कितनी अखरेगी? नहीं, यह छोटी-सी बात है, रुपए ले जाइए, दे दीजिए। रुपया इन्हीं दिनों के लिए जमा किया जाता है। मुझे इनकी कोई जरूरत नहीं है, मैं सहर्ष दे रही हूं। यदि ऐसा ही है, तो मेरे रुपए फेर दीजिएगा, ऋण समझकर लीजिए।
बात वही थी, पर जरा बदले हुए रूप में शर्माजी ने प्रसन्न होकर कहा– हां, इस शर्त पर ले सकता हूं। मासिक किस्त बांधकर अदा करूंगा।
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प्राचीन ऋषियों ने इंद्रियों को दमन करने के दो साधन बताए हैं– एक राग, दूसरा वैराग्य। पहला साधन अत्यंत कठिन और दुस्साध्य है। लेकिन हमारे नागरिक समाज ने अपने मुख्य स्थानों पर मीनाबाजार सजाकर इसी कठिन मार्ग को ग्रहण किया है। उसने गृहस्थी को कीचड़ का कमल बनाना चाहा है।
जीवन की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न वासनाओं का प्राबल्य रहता है। बचपन मिठाइयों का समय है, बुढा़पा लोभ का, यौवन प्रेम और लालसाओं का समय है। इस अवस्था में मीनाबाजार की सैर मन में विप्लव मचा देती है। जो सुदृढ़ हैं, लज्जाशील व भावशून्य है, वह संभल जाते हैं। शेष फिसलते और गिर पड़ते हैं।
शराब की दुकानों को हम बस्ती से दूर रखने का यत्न करते हैं, जुएखाने से भी हम घृणा करते हैं, लेकिन वेश्याओं की दुकानों को हम सुसज्जित कोठों पर, चौक बाजारों से ठाट से सजाते हैं। यह पापोत्तेजना नहीं तो और क्या है?
बाजार की साधारण वस्तुओं में कितना आकर्षण है। हम उन पर लट्टू हो जाते हैं और कोई आवश्यकता न होने पर भी उन्हें ले लेते हैं। तब वह कौन-सा हृदय है, जो रूप-राशि जैसे अमूल्य रत्न पर मर न मिटेगा? क्या हम इतना भी नहीं जानते?
विपक्षी कहता है, यह व्यर्थ की शंका है। सहस्रों युवक नित्य शहरों में घूमते रहते हैं, किन्तु उनमें से विरला ही कोई बिगड़ता है। वह मानव-पतन का प्रत्यक्ष प्रमाण चाहता है। किंतु उसे मालूम नहीं कि वायु की भांति दुर्बलता भी एक अदृश्य वस्तु है, जिसका ज्ञान उसके कर्म से ही हो सकता है। हम इतने निर्लज्ज, इतने साहस-रहित क्यों हैं। हममें आत्मगौरव का इतना अभाव क्यों है? हमारी निर्जीवता का क्या कारण है? वह मानसिक दुर्बलता के लक्षण हैं।
इसलिए आवश्यक है कि इन विष-भरी नागिनों को आबादी से दूर किसी पृथक् स्थान में रखा जाए। तब उन निद्यं स्थानों की ओर सैर करने को जाते हुए हमें संकोच होगा। यदि वह आबादी से दूर हों और वहां घूमने के लिए किसी बहाने की गुंजाइश न हो, तो ऐसे बहुत कम बेहया आदमी होंगे, जो इस मीनाबाजार में कदम रखने का साहस कर सकें।
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