उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
कृष्णचन्द्र– चाहे डूब ही जाओ?
गंगाजली– हां डूब जाना शेर के मुंह में पड़ने से अच्छा है।
कृष्णचन्द्र– अच्छा, यदि तुम्हारे घर में आग लगी हो और दरवाजों से निकलने का रास्ता न हो, तो क्या करोगी?
गंगाजली– छत पर चढ़ जाऊंगी और नीचे कूद पडूंगी।
कृष्णचन्द्र– इन प्रश्नों का मतलब तुम्हारी समझ में आया?
गंगाजली ने दीनभाव से पति को ओर देखकर कहा– तब क्या ऐसी बेसमझ हूं?
कृष्णचन्द्र– मैं कूद पड़ा हूं। बचूंगा या डूब जाऊंगा, यह मालूम नहीं।
३
पंडित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे। इस विषय में अभी नौसिखिए थे। उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है। मुख्तार ने अपने मन में कहा, हमीं ने सब कुछ किया और हमीं से यह चाल! हमें क्या पड़ी थी कि इस झगड़े में पड़ते और रात-दिन बैठे तुम्हारी खुशामद करते। महंत फंसते या बचते, मेरी बला से, मुझे तो अपने साथ न ले जाते। तुम खुश होते या नाराज, मेरी बला से, मेरा क्या बिगाड़ते? मैंने जो इतनी दौड़-धूप की, वह कुछ आशा ही रखकर की थी।
वह दारोगाजी के पास से उठकर सीधे थाने में आया और बातों-ही-बातों में सारा भंडा फोड़ गया।
थाने के अमलों ने कहा, वाह हमसे यह चाल! हमसे छिपा-छिपाकर यह रकम उड़ाई जाती है। मानों हम सरकार के नौकर ही नहीं है। देखें, यह माल कैसे हजम होता है। यदि इस बगुला-भगत को मजा न चखा दिया तो देखना।
कृष्णचन्द्र तो विवाह की तैयारियों में मग्न थे। वर सुंदर, सुशील, सुशिक्षित था। कुल ऊंचा और धनी। दोनों ओर से लिखा-पढ़ी हो रही थी। उधर हाकिम के पास गुप्त चिट्ठियां पहुंच रही थीं। उनमें सारी घटना ऐसी सफाई से बयान की गई थी, आक्षेपों के ऐसे सबल प्रमाण दिए गए थे, व्यवस्था की ऐसी उत्तम विवेचना की गई थी कि हाकिमों के मन में संदेह उत्पन्न हो गया। उन्होंने गुप्त रीति से तहकीकात की। संदेह जाता रहा। सारा रहस्य खुल गया।
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