उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
एक महीना बीत चुका था। कल तिलक जाने की साइत थी। दारोगाजी संध्या समय थाने में मसनद लगाए बैठे थे, उस समय सामने सुपरिंटेंडेंट पुलिस आता हुआ दिखाई दिया। उसके पीछे दो थानेदार और कई कांस्टेबल चले आ रहे थे। कृष्णचन्द्र उन्हें देखते ही घबराकर उठे कि एक थानेदार ने बढ़कर उन्हें गिरफ्तारी का वारंट दिखाया। कृष्णचन्द्र का मुख पीला पड़ गया। वह जड़ मूर्ति की भाँति चुपचाप खड़े हो गए और सिर झुका लिया। उनके चेहरे पर न भय था, न लज्जा थी। यह वही दोनों थानेदार थे, जिनके सामने वह अभिमान के सिर उठाकर चलते थे, जिन्हें वह नीच समझते थे। पर आज उन्हीं के सामने वह सिर नीचा किए खड़े थे। जन्म भर की नेकनामी एक क्षण में धूल में मिल गई। थाने के अमलों ने मन में कहा, और अकेले- अकेले रिश्वत उड़ाओ!
सुपरिंटेंडेंट ने कहा– वेल किशनचन्द्र, तुम अपने बारे में कुछ कहना चाहटा है?
कृष्णचन्द्र ने सोचा, क्या कहूं? क्या कह दूं कि मैं बिल्कुल निरपराध हूं, यह सब मेरे शत्रुओं की शरारत है, थानेवालों ने मेरी ईमानदारी से तंग आकर मुझे यहां से निकालने के लिए यह चाल खेली है?– पर वह पापाभिनय में ऐसे सिद्धहस्त न थे। उनकी आत्मा स्वयं अपने अपराध के बोझ से दबी जा रही थी। वह अपनी ही दृष्टि में गिर गये गए थे।
जिस प्रकार विरले ही दुराचारियों को अपने कुकर्मों का दंड मिलता है, उसी प्रकार सज्जनता का दंड पाना अनिवार्य है। उसका चेहरा, उसकी आंखें, उनके आकार-प्रकार, सब जिह्वा बन-बनकर उसके प्रतिकूल साक्षी देते हैं। उसकी आत्मा स्वयं अपना-अपना न्यायाधीश बन जाती है। सीधे मार्ग पर चलने वाला मनुष्य पेचीदी गलियों मे पड़ जाने पर अवश्य राह भूल जाता है।
कृष्णचन्द्र की आत्मा उन्हें बाणों से छेद रही थी। लो, अपने कर्मों का फल भोगो। मैं कहती थी कि सांप के बिल में हाथ न डालो। तुमने मेरा कहना न माना। यह उसी का फल है।
सुपरिंटेडेंट ने फिर पूछा– तुम अपने बारे में कुछ कहना चाहटा है?
कृष्णचन्द्र बोले– जी हां, मैं यही कहना चाहता हूं कि मैंने अपराध किया है और उसका कठोर-से-कठोर दंड मुझे दिया जाए। मेरा मुंह काला करके मुझे सारे कस्बे में घुमाया जाए। झूठी मर्यादा बढ़ाने के लिए, अपनी हैसियत को बढ़कर दिखाने के लिए, अपनी बड़ाई के लिए एक अनुचित कर्म किया है। और अब उसका दंड चाहता हूँ। आत्मा और धर्म का। धन मुझे न रोक सका। इसलिए मैं कानून की बेड़ियों के ही योग्य हूं। मुझे एक क्षण के लिए घर में जाने की आज्ञा दीजिए, वहां से आकर मैं आपके साथ चलने को तैयार हूं।
कृष्णचन्द्र की इन बातों में ग्लानि के साथ अभिमान भी मिला हुआ था। वह उन दोनों थानेदारों को दिखना चाहते थे कि यदि मैंने पाप किया है, तो मर्दों की भांति उसका फल भोगने के लिए तैयार हूं। औरों की तरह पाप करके उसे छिपाता नहीं।
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