उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
10 पाठकों को प्रिय 361 पाठक हैं |
यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सुमन ने आज तक किसी से ऐसी बातें नहीं सुनी थीं। वह इंद्रियों के सुख को, अपने आदर को जीवन का मुख्य उद्देश्य समझती थी। उसे आज मालूम हुआ कि सुख, संतोष से प्राप्त होता है और आदर सेवा से।
उसने कहा– मैं सुख और आदर दोनों ही को छोड़ती हूं, पर जीवन निर्वाह का तो कुछ उपाय करना पड़ेगा?
विट्ठलदास– अगर ईश्वर तुम्हें सुबुद्धि दें, तो सामान्य रीति से जीवन-निर्वाह करने के लिए तुम्हें दालमंडी में बैठने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे जीवन-निर्वाह का केवल यही एक उपाय नहीं है। ऐसे कितने धंधे हैं, जो तुम अपने घर में बैठी हुई कर सकती हो।
सुमन का मन अब कोई बहाना न ढूंढ़ सका। विट्ठलदास के सदुत्साह ने उसे वशीभूत कर लिया। सच्चे आदमी को हम धोखा नहीं दे सकते। उसकी सचाई हमारे हृदय में उच्च भावों को जागृत कर देती है। उसने कहा– मुझे यहां बैठते स्वतःलज्जा आती है। बताइए, आप मेरे लिए क्या प्रबंध कर सकते हैं? मैं गाने में निपुण हूं। गाना सिखाने का काम कर सकती हूं।
विट्ठलदास– ऐसी तो यहां कोई पाठशाला नहीं है।
सुमन– मैंने कुछ विद्या भी पढ़ी है, कन्याओं को अच्छी तरह पढ़ा सकती हूं।
विट्ठलदास ने चिंतित भाव से उत्तर दिया– कन्या पाठशालाएं तो कई हैं, पर तुम्हें लोग स्वीकार करेंगे, इसमें संदेह है।
सुमन– तो आप मुझसे क्या करने को कहते हैं? कोई ऐसा हिंदू जाति का प्रेमी है, जो मेरे लिए पचास रुपए मासिक देने पर राजी हो?
विट्ठलदास– यह तो मुश्किल है।
सुमन– तो क्या आप मुझसे चक्की पिसाना चाहते हैं? मैं ऐसी संतोषी नहीं हूं।
विट्ठलदास-(झेंपकर) विधवाश्रम में रहना चाहो, तो उसका प्रबंध कर दिया जाए।
सुमन– (सोचकर) तो मुझे यह भी मंजूर है, पर वहां मैंने स्त्रियों को अपने संबंध में कानाफूसी करते देखा तो पल-भर न ठहरूंगी।
विट्ठलदास– यह तो टेढ़ी शर्त है, मैं किस-किसकी जबान को रोकूंगा? लेकिन मेरी समझ में सभावाले तुम्हें लेने पर राजी न होंगे।
|