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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सुमन ने ताने से कहा– तो जब आपकी हिंदू जाति इतनी हृदयशून्य है, तो मैं उसकी मर्यादा पालने के लिए क्यों कष्ट भोगूं, क्यों जान दूं? जब आप मुझे अपनाने के लिए जाति को प्रेरित नहीं कर सकते, जब जाति आप ही लज्जाहीन है, तो मेरा क्या दोष है? मैं आपसे केवल एक प्रस्ताव और करूंगी और यदि आप उसे भी पूरा न कर सकेंगे, तो फिर मैं आपको और कष्ट न दूंगी। आप पं० पद्मसिंह को एक घंटे के लिए मेरे पास बुला लाइए, मैं उनसे एकांत में कुछ कहना चाहती हूं। उसी घड़ी मैं यहां से चली जाऊंगी। मैं केवल यह देखना चाहती हूं कि जिन्हें आप जाति के नेता कहते हैं, उनकी दृष्टि में मेरे पश्चात्ताप का कितना मूल्य है।

विट्ठलदास खुश होकर बोले– हां, यह मैं कर सकता हूं। बोलो, किस दिन?

सुमन– जब आपका जी चाहे।

विट्ठलदास– फिर तो न जाओगी?

सुमन– अभी इतनी नीच नहीं हुई हूं।

१६

महाशय विट्ठलदास इस समय ऐसे खुश थे मानों उन्हें कोई संपत्ति मिल गई हो। उन्हें विश्वास था कि पद्मसिंह इस जरा से कष्ट से मुंह न मोड़ेंगे, केवल उनके पास जाने की देर है। वह होली के कई दिन पहले से शर्माजी के पास नहीं गए थे। यथाशक्ति उनकी निंदा करने में कोई बात न उठा रखी थी, जिस पर कदाचित् अब वह मन में लज्जित थे, तिस पर भी शर्माजी के पास जाने में उन्हें जरा संकोच न हुआ। उनके घर की ओर चले।

रात के दस बजे गए थे। आकाश में बादल उमड़े हुए थे, घोर अंधकार छाया हुआ था। लेकिन राग-रंग का बाजार पूरी रौनक पर था। अट्टालिकाओं से प्रकाश की किरणें छिटक रही थीं। कहीं सुरीली तानें सुनाई देती थीं, कहीं मधुर हास्य की ध्वनि, कहीं आमोद-प्रमोद की बातें। चारों ओर विषय-वासना अपने नग्न रूप में दिखाई दे रही थी।

दालमंडी से निकलकर विट्ठलदास को ऐसा जान पड़ा, मानो वह किसी निर्जन स्थान पर आ गए। रास्ता अभी बंद न हुआ था। विट्ठलदास को ज्योंही कोई परिचित मनुष्य मिल जाता, वह उसे तुरंत अपनी सफलता की सूचना देते! आप कुछ समझते हैं, कहां से आ रहा हूं? सुमनबाई की सेवा में गया था। ऐसा मंत्र पढ़ा कि सिर न उठा सकी, विधवाश्रम में जाने पर तैयार है। काम करनेवाले यों काम किया करते हैं।

पद्मसिंह चारपाई पर लेटे हुए निद्रा देवी की आराधना कर रहे थे कि इतने में विट्ठलदास ने आकर आवाज दी। जीतन कहार अपनी कोठरी में बैठा हुआ दिन-भर की कमाई का हिसाब लगा रहा था कि यह आवाज कान में आई। बड़ी फुरती से पैसे समेटकर कमर में रख लिए और बोला– कौन है?

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