उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
विट्ठलदास– शर्माजी, बातें न बनाइए। एक जरा-सा कष्ट तो आपसे उठाया नहीं जाता, आप बीस रुपए मासिक देंगे?
शर्माजी– मैं आपको वचन देता हूं कि बीस रुपए मासिक दिया करूंगा और अगर मेरी आमदनी कुछ भी बढ़ी तो पूरी रकम दूंगा। हां, इस समय विवश हूं। यह बीस रुपए भी घोड़ा-गाड़ी बेचने से बच सकेंगे। मालूम नहीं, क्यों इन दिनों मेरा बाजार गिरा जा रहा है।
बिट्ठलदास– अच्छा, आपने बीस रुपए दे ही दिए, तो शेष कहां से आएंगे? औरों का तो हाल आप जानते ही हैं, विधवाश्रम के चंदे ही कठिनाई से वसूल होते हैं। मैं जाता हूं, यथाशक्ति उद्योग करूंगा, लेकिन यदि कार्य न हुआ, तो उसका दोष आपके सिर पड़ेगा।
१७
संध्या का समय है। सदन अपने घोड़े पर सवार दालमंडी में दोनों तरफ छज्जों और खिड़कियों की ओर ताकता जा रहा है। जब से सुमन वहां आई है, सदन उसके छज्जे के सामने किसी-न-किसी बहाने से जरा देर के लिए अवश्य ठहर जाता है। इस नव-कुसुम ने उसकी प्रेम-लालसा को ऐसा उत्तेजित कर दिया है। कि अब उसे एक पल चैन नहीं पड़ता। उसके रूप-लावण्य में एक प्रकार की मनोहारिणी सरलता है, जो उसके हृदय को बलात् अपनी ओर खींचती है। वह इस सरल सौंदर्य मूर्ति को अपना प्रेम अर्पण करने का परम अभिलाषी है, लेकिन उसे इसका सुअवसर नहीं मिलता। सुमन के यहां रसिकों का नित्य जमघट रहता है। सदन को यह भय होता है कि इनमें से कोई चाचा की जान-पहचान का मनुष्य न हो। इसलिए उसे ऊपर जाने का साहस नहीं होता।
अपनी प्रबल आकांक्षा को हृदय में छिपाए वह नित्य इसी तरह निराश होकर लौट जाता है। लेकिन आज उसने मुलाकात करने का निश्चय कर लिया है, चाहे कितनी देर क्यों न हो जाए। विरह का दाह उससे सहा नहीं जाता। वह सुमन के कोठे के सामने पहुंचा। श्याम कल्याण की मधुर ध्वनि आ रही थी। आगे बढ़ा और दो घंटे तक पार्क और मैदान में चक्कर लगाकर नौ बजे फिर दालमंडी की ओर चला। आश्विन के चंद्र की उज्जवल किरणों ने दालमंडी की ऊंची छतों पर रुपहली चादर-सी बिछा दी थी। वह फिर सुमन के कोठे के सामने रुका। संगीत-ध्वनि बंद थी; कुछ बोलचाल न सुनाई दी। निश्चय हो गया कि कोई नहीं है। घोड़े से उतरा, उसे नीचे की दुकान के खंभे से बांध दिया और सुमन के द्वार पर खड़ा हो गया। उसकी सांस बड़े वेग से चल रही थी। और छाती जोर से धड़क रही थी।
सुमन का मुजरा अभी समाप्त हुआ था, और उसके मन पर वह शिथिलता छाई हुई थी, जो आंधी के पीछे आने वाले सन्नाटे के समान आमोद-प्रमोद का प्रतिफल हुआ करती है। यह एक प्रकार की चेतावनी होती है, जो आत्मा की ओर से भोग-विलास में लिप्त मन को मिलती है। इस दशा में हमारा हृदय पुरानी स्मृतियों का क्रीड़ा-क्षेत्र बन जाया करता है। थोड़ी देर के लिए हमारे ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं।
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