उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
विट्ठलदास– तो क्या आप कोई प्रतिज्ञापत्र लिखवाना चाहते हैं?
पद्मसिंह– नहीं, मुझे संदेह यही है कि वह सुख-विलास छोड़कर विधवाश्रम में क्यों जाने लगी और सभा वाले उसे लेना स्वीकार कब करेंगे?
विट्ठलदास– सभावालों को मनाना तो मेरा काम है। न मानेंगे तो मैं उसके गुजारे का और कोई प्रबंध करूंगा। रही पहली बात। मान लीजिए, वह अपने वचन को मिथ्या ही कर दे, तो इसमें हमारी क्या हानि है? हमारा कर्त्तव्य पूरा हो जाएगा।
पद्मसिंह– हां, यह संतोष चाहे हो जाए, लेकिन देख लीजिएगा, वह अवश्य धोखा देगी।
विट्ठलदास अधीर हो गए, झुंझलाकर बोले– अगर धोखा ही दे दिया, तो आपका कौन छप्पन टका खर्च हुआ जाता है।
पद्मसिंह– आपके निकट मेरी कुछ प्रतिष्ठा न हो, लेकिन मैं अपने को इतना तुच्छ नहीं समझता।
विट्ठलदास– सारांश यह कि न जाएंगे?
पद्मसिंह– मेरे जाने से कोई लाभ नहीं हैं। हां, यदि मेरा मान-मर्दन कराना ही अभीष्ट हो, तो दूसरी बात है।
विट्ठलदास– कितने खेद की बात है कि आप एक जातीय कार्य के लिए इतना मीन-मेख निकाल रहे हैं! शोक! आप आंखों से देख रहे हैं कि एक हिंदू जाति की स्त्री कुएं में गिरी हुई है, और आप उसी जाति के एक विचारवान पुरुष होकर उसे निकालने में इतना आगा-पीछा कर रहे हैं। बस आप इसी काम के हैं कि मूर्ख किसानों और जमींदारों का रक्त चूसें। आपसे और कुछ न होगा।
शर्माजी ने इस तिरस्कार का उत्तर न दिया। वह मन में अपनी अकर्मण्यता पर स्वयं लज्जित थे और अपने को इस तिरस्कार का भागी समझते थे। लेकिन एक ऐसे पुरुष के मुंह से ये बातें अत्यंत अप्रिय मालूम हुईं, जो इस बुराई का मूल कारण हो। वह बड़ी कठिनाई से प्रत्युत्तर देने के आवेग को रोक सके। यथार्थ में वह सुमन की रक्षा करना चाहते थे, लेकिन गुप्त रीति से, बोले– उसकी और भी तो शर्तें हैं?
विट्ठलदास– जी हां, हैं तो लेकिन आप में उन्हें पूरा करने का सामर्थ्य है? वह गुजारे के लिए पचास रुपए मासिक मांगती है, आप दे सकते हैं?
शर्माजी– पचास रुपए नहीं, लेकिन बीस रुपए देने को तैयार हूं।
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