उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
विट्ठलदास का मनोरथ यहां भी पूरा न हुआ, लेकिन यह उनके लिए कुछ नई बात न थी। ऐसे निराशाजनक अनुभव उन्हें नित्य ही हुआ करते थे। यहां से डॉक्टर श्यामाचरण के पास पहुंचे। डॉक्टर महोदय बड़े समझदार और विद्वान पुरुष थे। शहर के प्रधान राजनीतिक नेता थे, उनकी वकालत खूब चमकी हुई थी। बहुत तौल-तौल कर मुंह से शब्द निकालते। उनकी मौन गंभीरता विचारशीलता का द्योतक समझी जाती थी। शांति के भक्त थे, इसलिए उनके विरोध से न किसी को हानि थी, न उनके योग से किसी को लाभ। सभी तरह के लोग उन्हें अपना मित्र समझते थे, सभी अपना शत्रु। वह अपनी कमिश्नरी की ओर से सूबे की सलाहकारी सभा के सभासद थे। विट्ठलदास की बात सुनकर बोले– मेरे योग्य जो सेवा हो, वह मैं करने को तैयार हूं। लेकिन उद्योग यह होना चाहिए कि उन कुप्रथाओं का सुधार किया जाए, जिनके कारण ऐसी समस्याएँ उपस्थित होती हैं। इस समय आप एक की रक्षा कर ही लेंगे, तो इससे क्या होगा? यहां तो नित्य ही ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। मूल कारणों का सुधार होना चाहिए। कहिए तो कौंसिल में कोई प्रश्न करूं?
विट्ठलदास उछलकर बोले– जी हां, यह तो बहुत ही उत्तम होगा।
डॉक्टर साहब ने तुरंत प्रश्नों की एक माला तैयार की–
१. क्या गवर्नमेंट बता सकती है कि गत वर्ष वेश्याओं की संख्या कितनी बढ़ी?
२. क्या गवर्नमेंट ने इस बात का पता लगाया है कि इस वृद्धि के क्या कारण हैं और गवर्नमेंट उसे रोकने के लिए क्या करना उपाय करना चाहती हैं?
३. ये कारण कहां तक मनोविकारों से संबंध रखते हैं, कहां तक आर्थिक स्थिति से और कहां तक सामाजिक कुप्रथाओं से?
इसके बाद डॉक्टर साहब अपने मुवक्किलों से बातचीत करने लगे, विट्ठलदास आध घंटे तक बैठे रहे, अंत में अधीर होकर बोले– तो मुझे क्या आज्ञा होती है?
श्यामाचरण– आप इत्मीनान रखें, अब की कौंसिल की बैठक में गवर्नमेंट का ध्यान इस ओर आकर्षित करूंगा।
विट्ठलदास के जी में आया कि डॉक्टर साहब को आड़े हाथों लूं, किंतु कुछ सोचकर चुप रह गए। फिर किसी बड़े आदमी के पास जाने का साहस न हुआ। लेकिन उस कर्मवीर ने उद्योग से मुंह नहीं मोड़ा। नित्य किसी सज्जन के पास जाते और उससे सहायता की याचना करते। यह उद्योग निष्फल तो नहीं हुआ। उन्हें कई सौ रुपए के वचन और कई सौ नकद मिल गए, लेकिन तीस रुपए मासिक की जो कमी थी, वह इतने धन से क्या पूरी होती? तीन महीने की दौड़-धूप के बाद वह बड़ी मुश्किल से दस रुपए मासिक का प्रबंध करने में सफल हो सके।
अंत में जब उन्हें अधिक सहायता की कोई आशा न रही तो वह एक दिन प्रातःकाल सुमनबाई के पास गए। वह इन्हें देखते ही कुछ अनमनी-सी होकर बोली– कहिए महाशय, कैसे कृपा की?
विट्ठलदास– तुम्हें अपना वचन याद है?
सुमन– इतने दिनों की बातें अगर मुझे भूल जाएं, तो मेरा दोष नहीं।
विट्ठलदास– मैंने तो बहुत चाहा कि शीघ्र ही प्रबंध हो जाए, लेकिन ऐसी जाति से पाला पड़ा है, जिसमें जातीयता का सर्वथा लोप हो गया है। तिस पर भी मेरा उद्योग बिल्कुल व्यर्थ नहीं हुआ। मैंने तीस रुपए मासिक का प्रबंध कर दिया और आशा है कि और जो कसर है, वह भी पूरी हो जाएगी। अब तुमसे मेरी यही प्रार्थना है कि इसे स्वीकार करो और आज ही इस नरककुंड को छोड़ दो।
सुमन– शर्माजी को आप नहीं ला सके क्या?
विट्ठलदास– वह किसी तरह आने पर राजी न हुए। इस तीस रुपए में बीस रुपए मासिक का वचन उन्हीं ने दिया है।
सुमन ने विस्मित होकर कहा– अच्छा! वह तो बड़े उदार निकले। सेठों से कुछ मदद मिली?
विट्ठलदास– सेठों की बात न पूछो। चिम्मनलाल रामलीला के लिए हजार-दो हजार रुपए खुशी से दे देंगे। बलभद्रदास से अफसरों की बधाई के लिए इससे भी अधिक मिल सकता है, लेकिन इस विषय में उन्होंने कोरा जवाब दिया।
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