उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सुमन इस समय सदन के प्रेमजाल में फंसी हुई थी। प्रेम का आनंद उसे कभी नहीं प्राप्त हुआ था, इस दुर्लभ रत्न को पाकर वह उसे हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी। यद्यपि वह जानती थी कि इस प्रेम का परिणाम वियोग के सिवा और कुछ नहीं हो सकता, लेकिन उसका मन कहता था कि जब तक वह आनंद मिलता है, तब तक उसे क्यों न भोगूं। आगे चलकर न जाने क्या होगा, जीवन की नाव न जाने किस-किस भंवर में पड़ेगी, न जाने कहां-कहां भटकेगी। भावी चिंताओं को वह अपने पास न आने देती थी, क्योंकि उधर भयंकर अंधकार के सिवा और कुछ न सूझता था। अतएव जीवन के सुधार करता वह उत्साह, जिसके वशीभूत होकर उसने विट्ठलदास से वह प्रस्ताव किए थे, क्षीण हो गया था। इस समय विट्ठलदास सौ रुपए मासिक का लोभ दिखाते, तो भी वह खुश न होती, किंतु एक बार जो बात खुद ही उठाई थी, उससे फिरते हुए शर्म आती थी। बोली– मैं इसका जवाब कल दूंगी। अभी कुछ सोच लेने दीजिए।
विट्ठलदास– इसमें क्या सोचना-समझना है?
सुमन– कुछ नहीं, लेकिन कल ही पर रखिए।
रात के दस बज गए थे। शरद् ऋतु की सुनहरी चांदनी छिटकी हुई थी। सुमन खिड़की से नीलवर्ण आकाश की ओर ताक रही थी। जैसे चांदनी के प्रकाश में तारागण की ज्योति मलिन पड़ गई थी उसी प्रकार उसके हृदय में चंद्ररूपी सुविचार ने विकासरूपी तारागण को ज्योतिहीन कर दिया था।
सुमन के सामने एक कठिन समस्या उपस्थित थी, विट्ठलदास को क्या उत्तर दूं?
आज प्रातःकाल उसने कल जवाब देने का बहाना करके विट्ठलदास को टाला था। लेकिन दिन-भर के सोच-विचार ने उसके विचारों में कुछ संशोधन कर दिया था।
सुमन को यद्यपि यहां भोग-विलास के सभी सामान प्राप्त थे लेकिन बहुधा उसे ऐसे मनुष्यों की आवभगत करनी पड़ती थी, जिनकी सूरत से उसे घृणा होती थी, जिनकी बातों को सुनकर उसका जी मिचलाने लगता था। अभी उसके मन में उत्तम भावों का सर्वथा लोप नहीं हुआ था। वह उस अधोगति को नहीं पहुंची थी, जहां दुर्व्यसन हृदय के समस्त भावों को नष्ट कर देता है।
इसमें संदेह नहीं कि वह विलास की सामग्रियों पर जान देती थी, लेकिन इन सामग्रियों की प्राप्ति के लिए जिस बेहयाई की जरूरत थी, वह उसके लिए असह्य थी और कभी-कभी एकांत में वह अपनी वर्तमान दशा की पूर्वावस्था से तुलना किया करती थी। वहां यह टीमटाम न थी, किंतु वह अपने समाज में आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। वह अपनी पड़ोसिनों के सामने अपनी कुलीनता पर गर्व कर सकती थी, अपनी धार्मिकता और भक्तिभाव का रोब जमा सकती थी। किसी के सम्मुख उसका सिर नीचा नहीं होता था। लेकिन यहां उसके सगर्व हृदय को पग-पग पर लज्जा से मुंह छिपाना पड़ता था। उसे ज्ञात होता था कि मैं किसी कुलटा के सामने भी सिर उठाने योग्य नहीं हूं। जो निरादर और अपमान उसे उस समय सहने पड़ते थे, उनकी अपेक्षा यहां की प्रेमवार्ता और आंखों की सनकियां अधिक दुःखजनक प्रतीत होती थीं और उसके भावपूर्ण हृंदय पर कुठाराघात कर देती थीं। तब उसका व्यथित हृदय पद्मसिंह पर दांत पीसकर रह जाता था। यदि उस निर्दय मनुष्य ने अपनी बदनामी के भय से मेरी अवहेलना न की होती, तो मुझे इस पापकुंड में कूंदने का साहस न होता। अगर वह मुझे चार दिन भी पड़ा रहने देते, तो कदाचित् मैं अपने घर लौट जाती। अथवा वह (गजाधर) ही मुझे मना ले जाते, फिर उसी प्रकार लड़-झगड़कर जीवन के दिन काटने-कटने लगते। इसलिए उसने विट्ठलदास से पद्मसिंह को अपने साथ लाने की शर्त की थी।
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