उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
लेकिन आज जब विट्ठलदास से उसे ज्ञात हुआ कि शर्माजी मुझे उबारने के लिए कितने उत्सुक हो रहे हैं और कितनी उदारता के साथ मेरी सहायता करने पर तैयार हैं, तो उनके प्रति घृणा के स्थान पर उसके मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई। वह बड़े सज्जन पुरुष हैं। मैं खामखाह अपने दुराचार का दोष उनके सिर रखती हूं। उन्होंने मुझ पर दया की है। मैं जाकर उनके पैरों पर गिर पडूंगी और कहूंगी कि आपने इस अभागिन का उपकार किया है, उसका बदला आपको ईश्वर देंगे। यह कंगन भी लौटा दूं, जिससे उन्हें यह संतोष हो जाए कि जिस आत्मा की मैंने रक्षा की है, वह सर्वथा उसके अयोग्य नहीं है। बस, वहां से आकर इस पाप के मायाजाल से निकल भागूं।
लेकिन सदन को कैसे भुलाऊंगी?
अपने मन की इस चंचलता पर वह झुंझला पड़ी क्या उस पापमय प्रेम के लिए जीवन-सुधारक इस दुर्लभ अवसर को हाथ से जाने दूं? चार दिन की चांदनी के लिए सदैव पाप के अंधकार में पड़ी रहूं? अपने हाथ से एक सरल हृदय युवक का जीवन नष्ट करूं? जिस सज्जन पुरुष ने मेरे साथ वह सद्व्यवहार किया है, उन्हीं के साथ यह छल! यह कपट! नहीं, मैं दूषित प्रेम को हृदय से निकाल दूंगी। सदन को भूल जाऊंगी। उससे कहूंगी, तुम भी मुझे इस मायाजाल से निकलने दो।
आह! मुझे कैसा धोखा हुआ! यह स्थान दूर से कितना सुहावना, कितना मनोरम, कितना सुखमय दिखाई देता था। मैंने इसे फूलों का बाग समझा, लेकिन है क्या? एक भयंकर वन, मांसाहरी पशुओं और विषैले कीड़ों से भरा हुआ!
यह नदी दूर से चांद की चादर-सी बिछी हुई कैसी भली मालूम होती थी। पर अंदर क्या मिलता है? बड़े-बड़े विकराल जल-जंतुओं का क्रीड़ा-स्थल! सुमन इसी प्रकार विचार-सागर में मग्न थी। उसे यह उत्कंठा हो रही थी कि किसी तरह सवेरा हो जाए और विट्ठलदास आ जाए, किसी तरह यहां से निकल भागूं। आधी रात बीत गई और उसे नींद न आई। धीरे-धीरे उसे शंका होने लगी कि कहीं सबेरे विट्ठलदास न आए तो क्या होगा? क्या मुझे फिर यहां प्रातःकाल से संध्या तक मीरासियों और धाड़ियों की चापलूसियां सुननी पड़ेंगी। फिर पाप-रजोलिप्त पुतलियों का आदर-सम्मान करना पड़ेगा? सुमन को यहां रहते हुए अभी छह मास भी पूरे न हुए थे, लेकिन इतने ही दिनों में उसे यहां का पूरा अनुभव हो गया था। उसके यहां सारे दिन मीरासियों का जमघट रहता था। वह अपने दुराचार, छल और क्षुद्रता की कथाएं बड़े गर्व से कहते। उनमें कोई चतुर गिरहकट था, कोई धूर्त ताश खेलनेवाले, कोई टपके की विद्या में निपुण, कोई दीवार फांदने के फन का उस्ताद और सबके-सब अपने दुस्साहस और दुर्बलता पर फूले हुए। पड़ोस की रमणियां भी नित्य आती थीं, रंगी, बनी-ठनीं, दीपक के समान जगमगाती हुईं, किंतु यह स्वर्ण-पात्र थे, हलाहल से भरे हुए पात्र– उनमें कितना छिछोरापन था! कितना छल! कितनी कुवासना! वह अपनी निर्लज्जता और कुकर्मों के वृत्तांत कितने मजे में ले-लेकर कहतीं। उनमें लज्जा का अंश भी न रहा था। सदैव ठगने की, छलने की धुन, मन सदैव पाप-तृष्णा में लिप्त।
शहर में जो लोग सच्चरित्र थे, उन्हें यहां खूब गालियां दी जाती थीं, उनकी खूब हंसी उड़ाई जाती थी बुद्धू, गौखा आदि की पदवियां दी जाती थीं। दिन-भर सारे शहर की चोरी और डाके, हत्या और व्यभिचार, गर्भपात और विश्वासघात की घटनाओं की चर्चा रहती थी। यहां का आदर और प्रेम अब अपने यथार्थ रूप में दिखाई देता था। यह प्रेम नहीं था, आदार नहीं था, केवल कामलिप्सा थी।
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