उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
उसने बहुत रोका, पर हंसी ओठ पर आ गई। अबुलवफा ऐसे खिसियाए हुए थे, मानों अब वह अनाथ हो गए। सुमन की हंसी अखर गई। उस भोंड़ी सूरत पर खेद और खिसियाहट का अपूर्व दृश्य था। बोले– यह कब की कसर निकाली?
सुमन– मुंशीजी, मैं सच कहती हूं, ये दोनों आंखें फूट जाएं अगर मैंने जान-बूझकर आग लगाई हो। आपसे बैर भी होता, तो दाढ़ी बेचारी ने मेरा क्या बिगाड़ा था?
अबुलवफा– माशूकों की शोखी और शरारत अच्छी मालूम होती है, लेकिन इतनी नहीं कि मुंह जला दें। अगर तुमने आग से कहीं दाग दिया होता, तो इससे अच्छा था। अब यह भुन्नास की-सी सूरत लेकर मैं किसे मुंह दिखाऊंगा? वल्लाह! आज तुमने मटियामेट कर दिया।
सुमन– क्या करूं, खुद पछता रही हूं। अगर मेरे दाढी होती तो आपको दे देती। क्यों, नकली दाढ़ियां भी तो मिलती हैं?
अबुलवफा– सुमन, जख्म पर नमक न छिड़को। अगर दूसरे ने यह हरकत की होती, तो आज उसका खून पी जाता।
सुमन– अरे, तो थोड़े-से बाल ही जल गए न और कुछ। महीने-दो-महीने में फिर निकल आएंगे। जरा-सी बात के लिए आप इतनी हाय-हाय मचा रहे हैं।
अबुलवफा– सुमन, जलाओ मत, नहीं तो मेरी जबान से भी कुछ निकल जाएगा। मैं इस वक्त आपे में नहीं हूं।
सुमन– नारायण, नारायण, जरा-सी दाढ़ी पर इतने जामे के बाहर हो गए! मान लीजिए, मैंने जानकर ही दाढ़ी जला दी तो? आप मेरी आत्मा को, मेरे धर्म को, मेरे हृदय को रोज जलाते हैं, क्या उनका मूल्य आपकी दाढ़ी से कम है? मियां, आशिक बनना मुंह का नेवाला नहीं है। जाइए, अपने घर की राह लीजिए, अब कभी यहाँ न आइएगा। मुझे ऐसे छिछोरे आदमियों की जरूरत नहीं है।
अबुलवफा ने क्रोध से सुमन की ओर देखा, तब जेब से रुमाल निकाला और जली हुई दाढ़ी को उसकी आड़ में छिपाकर चुपके से चले गए। यह वही मनुष्य है, जिसे खुले बाजार एक वेश्या के साथ आमोद-प्रमोद में लज्जा नहीं आती थी।
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