उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
अब सदन के आने का समय हुआ। सुमन आज उससे मिलने के लिए बहुत उत्कंठित थी। आज यह अंतिम मिलाप होगा। आज यह प्रेमाभिनय समाप्त हो जाएगा। वह मोहिनी-मूर्ति फिर देखने को न मिलेगी। उनके दर्शनों को नेत्र तरस-तरस रहेंगे। वह सरल प्रेम से भरी हुई मधुर बातें सुनने में न आएंगी। जीवन फिर प्रेमविहीन और नीरस हो जाएगा। कलुषित सही, पर यह प्रेम सच्चा था। भगवान मुझे यह वियोग सहने की शक्ति दीजिए। नहीं, इस समय सदन न आए तो अच्छा है, उससे न मिलने में ही कल्याण है। कौन जाने उसके सामने मेरा संकल्प स्थिर रह सकेगा या नहीं। पर वह आ जाता तो एक बार दिल खोलकर उससे बातें कर लेतीं, उसे इस कपट सागर में डूबने से बचाने की चेष्टा करती।
इतने में सुमन ने विट्ठलदास को एक किराए की गाड़ी में से उतरते देखा। उसका हृदय वेग से धड़कने लगा।
एक क्षण में विट्ठलदास ऊपर आ गए और बोले– अरे, अभी तुमने कुछ तैयारी नहीं की।
सुमन– मैं तैयार हूं।
विट्ठलदास– अभी बिस्तरे तक नहीं बंधे?
सुमन– यहां की कोई वस्तु साथ न ले जाऊंगी, यह वास्तव में मेरा पुनर्जन्म हो रहा है।
विट्ठलदास– इस सामान का क्या होगा?
सुमन– आप इसे बेचकर किसी शुभ कार्य में लगा दीजिएगा।
विट्ठलदास– अच्छी बात है, मैं यहां ताला डाल दूंगा। तो अब उठो, गाड़ी मौजूद है।
सुमन– दस बजे से पहले नहीं चल सकती। आज मुझे अपने प्रेमियों से विदा होना है। कुछ उनकी सुननी है, कुछ अपनी कहनी है। आप तब तक छत पर जाकर बैठिए, मुझे तैयार ही समझिए।
विट्ठलदास को बुरा मालूम हुआ, पर धैर्य से काम लिया। ऊपर जाकर खुली हुई छत पर टहलने लगे।
सात बज गए, लेकिन सदन न आया। आठ बजे तक सुमन उसकी राह देखती रही, अंत में वह निराश हो गई। जब से वह यहां आने लगा, आज ही उसने नागा किया। सुमन को ऐसा मालूम होता था, मानो वह किसी निर्जन स्थान में खो गई है। हृदय में एक अत्यंत तीव्र किंतु सरल, वेदनापूर्ण किंतु मनोहारी आकाक्षां का उद्वेग हो रहा था। मन पूछता था, उनके न आने का क्या कारण है? किसी अनिष्ट की आशंका ने उसे बेचैन कर दिया।
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