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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


सुमन– क्या आपसे मुझे कोई बैर था? और आपसे बैर हो भी, तो आपकी बेचारी कमर ने मेरा क्या बिगाड़ा था?

चिम्मनलाल– अब यहां आनेवाले पर लानत है।

सुमन– सेठजी, आप इतनी जल्दी नाराज हो गए। मान लीजिए, मैंने जानबूझकर ही आपको गिरा दिया, तो क्या हुआ?

इतने में विट्ठलदास ऊपर से उतर आए। उन्हें देखते ही सेठजी चौंक पड़े। घड़ों पानी पड़ गया।

विट्ठलदास ने हंसी को रोककर पूछा– कहिए सेठजी, आप यहां कैसे आ फंसे? मुझे आपको यहां देखकर बड़ा आश्चर्य होता है।

चिम्मनलाल– इस घड़ी न पूछिए। फिर यहां आऊं तो मुझ पर लानत है। मुझे किसी तरह यहां से नीचे पहुंचाइए।

विट्ठलदास ने एक हाथ थामा, साईस ने आकर कमर पकड़ी। इस तरह लोगों ने उन्हें किसी तरह जीने से उतारा और लाकर गाड़ी में लिटा दिया।

ऊपर आकर विट्ठलदास ने कहा– गाड़ीवाला अभी तक खड़ा है, दस बज गए। अब विलंब न करो।

सुमन ने कहा– अभी एक काम और करना है। पंडित दीनानाथ आते होंगे। बस, उनसे निपट लूं। आप थोड़ा-सा कष्ट और कीजिए।

विट्ठलदास ऊपर जाकर बैठे ही थे कि पंडित दीनानाथ आ पहुंचे। बनारसी साफा सिर पर था, बदन पर रेशमी अचकन शोभायमान थी। काले किनारे की महीन धोती और काली वार्निश के पंप जूते उनके शरीर पर खूब जंचते थे।

सुमन ने कहा– आइए महाराज! चरण छूती हूं।

दीनानाथ– आशीर्वाद, जवानी बढ़े, आंख के अंधे गांठ के पूरे फंसे, सदा बढ़ती रहो।

सुमन– कल आप कैसे नहीं आए, समाजियों को लिए रात तक आपकी राह देखती रही।

दीनानाथ– कुछ न पूछो, कल एक रमझल्ले में फंस गया था। डॉक्टर श्यामाचरण और प्रभाकर राव स्वराज्य की सभा में घसीट ले गए। वहां बकझक-झकझक होती रही। मुझसे सबने व्याख्यान देने को कहा। मैंने कहा, मुझे कोई उल्लू समझा है क्या? पीछा छुड़ाकर भागा। इसी में देरी हो गई।

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