उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सुमन– कई दिन हुए, मैंने आपसे कहा था कि किवाड़ों में वार्निश लगवा दीजिए। आपने कहा, वार्निश कहीं मिलती ही नहीं। यह देखिए, आज मैंने एक बोतल वार्निश मंगा रखी है। कल जरूर लगवा दीजिए।
पंडित दीनानाथ मसनद लगाए बैठे थे। उनके सिर पर ही वह ताक था, जिस पर वार्निश रखी हुई थी। सुमन ने बोतल उठाई, लेकिन मालूम नहीं, कैसे बोतल की पेंदी अलग हो गई और पंडितजी वार्निश से नहा उठे। ऐसा मालूम होता था, मानो शीरे की नांद में फिसल पड़े हों। वह चौंककर खड़े हुए और साफा उतारकर रुमाल से पोंछने लगे।
सुमन ने कहा– मालूम नहीं, बोतल टूटी थी क्या– सारी वार्निश खराब हो गई।
दीनानाथ– तुम्हें अपनी वार्निश की पड़ी है, यहां सारे कपड़े तर हो गए। अब घर तक पहुंचना मुश्किल है।
सुमन– रात को कौन देखता है, चुपके से निकल जाइएगा।
दीनानाथ– अजी, रहने भी दो, सारे कपड़े सत्यानाश कर दिए, अब उपाय बता रही हो। अब यह धुल भी नहीं सकते।
सुमन– तो क्या मैंने जान-बुझकर गिरा दिया।
दीनानाथ– तुम्हारे मन का हाल कौन जाने?
सुमन– अच्छा जाइए, जानकर ही गिरा दिया।
दीनानाथ– अरे, तो मैं कुछ कहता हूं, जी चाहे और गिरा दो।
सुमन– बहुत होगा अपने कपड़ों की कीमत ले लीजिएगा।
दीनानाथ– खफा क्यों होती हो, सरकार? मैं तो कह रहा हूं, गिरा दिया, अच्छा किया।
सुमन– इस तरह कह रहे हैं, मानों मेरे साथ बड़ी रियायत कर रहे हैं।
दीनानाथ– सुमन, क्यों लज्जित करती हो?
सुमन– जरा-सा कपड़े खराब हो गए, उस पर ऐसे जामे से बाहर हो गए, यही आपकी मुहब्बत है, जिसकी कथा सुनते-सुनते मेरे कान पक गए। आज उसकी कलई खुल गई। जादू सिर पर चढ़के बोला। आपने अच्छे समय पर मुझे सचेत कर दिया। अब कृपा करके घर जाइए। यहां फिर न आइएगा। मुझे आप जैसे मियां मिट्ठुओं की जरूरत नहीं।
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