उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
10 पाठकों को प्रिय 361 पाठक हैं |
यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
आज संध्या समय सदन को सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। चोर, दगाबाज बनकर उसके पास कैसे जाए? उसका चित्त खिन्न था, घर पर बैठना बुरा मालूम होता था। उसने यह सब सहा, पर सुमन के पास न जा सका।
इस भांति एक सप्ताह बीत गया। सुमन से मिलने की उत्कंठा नित्य प्रबल होती जाती थी और शंकाएं इस उत्कंठा को दबाती जाती थी। संध्या समय उसकी दशा उन्मत्तों की-सी हो जाती। जैसे बीमारी के बाद मनुष्य का चित्त उदास रहता है, किसी से बातें करने को जी नहीं चाहता, उठना-बैठना पहाड़ हो जाता है, जहां बैठता है, वहीं का हो जाता है, वही दशा इस समय सदन की थी।
अंत को वह अधीर हो गया। आठवें दिन उसने घोड़ा कसाया और सुमन से मिलने चला। उसने निश्चय कर लिया था कि आज चलकर उससे अपना सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दूंगा। जिससे प्रेम हो गया, उससे अब छिपाना कैसा! हाथ जोड़कर कहूंगा, सरकार बुरा हूं तो, भला हूं तो, अब आपका सेवक हूं। चाहे जो दंड दो, सिर तुम्हारे सामने झुका हुआ है। चोरी की, चाहे दगा किया, सब तुम्हारे प्रेम के निमित्त किया, अब क्षमा करो।
विषय– वासना, नीति, ज्ञान और संकोच किसी के रोके नहीं रुकती। उसके नशे में हम सब बेसुध हो जाते हैं।
वह व्याकुल होकर पांच बजे निकल पड़ा और घूमता हुआ नदी के तट पर आ पहुंचा। शीतल, मंद वायु उसके तपते हुए शरीर को अत्यंत सुखद मालूम होती थी और जल की निर्मल, श्याम, सुवर्ण धारा में रह-रहकर उछलती हुई मछलियां ऐसी मालूम होती थीं, मानों किसी सुंदरी के चंचल नयन महीन घूंघट से चमकते हों।
सदन घोड़े से उतरकर कगार पर बैठ गया और इस मनोहर दृश्य को देखने में मग्न हो गया। अकस्मात् उसने एक जटाधारी साधु को पेड़ों की आड़ से अपनी तरफ आते देखा। उसके गले में रुद्राक्ष की माला थी और नेत्र लाल थे। ज्ञान और योग की प्रतिभा की जगह उसके मुख से एक प्रकार की सरलता और दया प्रकट होती थी। उसे अपने निकट देखकर सदन ने उठकर सत्कार किया।
साधु ने इस ढंग से उसका हाथ पकड़ लिया, मानो उससे परिचय है और बोला– सदन, मैं कई दिन से तुमसे मिलना चाहता था। तुम्हारे हित की एक बात कहना चाहता हूं। तुम सुमनबाई के पास जाना छोड़ दो, नहीं तो तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा। तुम नहीं जानते, वह कौन है? प्रेम के नशे में तुम्हें उसके दूषण नहीं दिखाई देते। तुम समझते हो कि वह तुमसे प्रेम करती है। किंतु यह तुम्हारी भूल है। जिसने अपने पति को त्याग दिया वह दूसरों से क्या प्रेम निभा सकती है? तुम इस समय वहीं जा रहे हो। साधु का वचन मानो, घर लौट जाओ, इसी में तुम्हारा कल्याण है।
|