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सामाजिक कहानियाँ >> सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640
आईएसबीएन :978-1-61301-187

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…

यही मेरा वतन है

आज पूरे साठ बरस के बाद मुझे अपने वतन प्यारे वतन का दर्शन फिर नशीब हुआ। जिस वक़्त मैं अपने प्यारे देश से विदा हुआ और क़िस्मत मुझे पच्छिम की तरफ़ ले चली, मेरी उठती जवानी थी। मेरी रगों में ताज़ा खून दौड़ता था और सीना उमंगों और बड़े-बड़े इरादों से भरा हुआ था। मुझे प्यारे हिन्दुस्तान से किसी ज़ालिम की सख़्तियों और इंसाफ़ के ज़बर्दस्त हाथों ने अलग नहीं किया था। नहीं, ज़ालिम का ज़ुल्म और क़ानून की सख़्तियाँ मुझसे जो चाहें करा सकती हैं मगर मेरा वतन मुझसे नहीं छुड़ा सकतीं यह मेरे बुलंद इरादे और बड़े-बड़े मंसूबे थे जिन्होंने मुझे देश निकाला दिया। मैंने अमरीका में खूब व्यापार किया, खूब दौलत कमायी और खूब ऐश किये। भाग्य से बीवी भी ऐसी पायी जो अपने रूप में बेजोड़ थी, जिसकी खूबसूरती का चर्चा सारे अमरीका में फैला हुआ था और जिसके दिल में किसी ऐसे ख़याल की गुंजाइश भी न थी जिसका मुझसे संबंध न हो। मैं उस पर दिलोजान से न्यौछावर था और वह मेरे लिए सब कुछ थी। मेरे पाँच बेटे हुए, सुन्दर, हृष्ट-पुष्ट और नेक, जिन्होंने व्यापार को और भी चमकाया और जिनके भोले, नन्हें बच्चे उस वक़्त मेरी गोद में बैठे हुए थे जब मैंने प्यारी मातृभूमि का अंतिम दर्शन करने के लिए क़दम उठाया। मैंने बेशुमार दौलत, वफ़ादार बीवी, सपूत बेटे और प्यारे-प्यारे जिगर के टुकड़े, ऐसी-ऐसी अनमोल नेमतें छोड़ दीं। इसलिए कि प्यारी भारत-माता का अंतिम दर्शन कर लूँ। मैं बहुत बुड्ढा हो गया था। दस और हों तो पूरे सौ बरस का हो जाऊँ और अब अगर मेरे दिल में कोई आरजू बाक़ी है तो यही कि अपने देश की ख़ाक में मिल जाऊँ। यह आरजू कुछ आज ही मेरे मन में पैदा नहीं हुई है उस वक़्त भी थी जब कि मेरी बीवी अपनी मीठी बातों और नाज़ुक अदाओं से मेरा दिल खुश किया करती थी। जब कि मेरे नौजवान बेटे सवेरे आकर अपने बूढ़े बाप को अदब से सलाम करते थे, उस वक़्त भी मेरे जिगर में एक कांटा-सा खटकता और वह कांटा यह था कि मैं यहां अपने देश से निर्वासित हूँ। यह देश मेरा नहीं है, मैं इस देश का नहीं हूँ। धन मेरा था, बीवी मेरी थी, लड़के मेरे थे और अपनी जायदादें मेरी थीं, मगर जाने क्यों मुझे रह रहकर अपनी मातृभूमि के टूटे-फूटे झोंपड़े, चार-छः बीघा मौरूसी ज़मीन और बचपन के लंगोटिया यारों की याद सताया करती थी और अकसर खुशियों की धूमधाम में भी यह ख़याल चुटकी लिया करता कि काश अपने देश में होता!

मगर जिस वक़्त बम्बई में ज़हाज से उतरा और काले कोट-पतलून पहने, टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलते मल्लाह देखे, फिर अँग्रेजी दुकानें, ट्रामवें और मोटर-गाड़ियाँ नजर आयीं, फिर रबड़वाले पहियों और मुँह में चुरुट दाबे आदमियों से मुठभेड़ हुई, फिर रेल का स्टेशन, और रेल पर सवार होकर अपने गाँव को चला, प्यारे गाँव को जो हरी-भरी पहाड़ियों के बीच में आबाद था, तो मेरी आँखों में आँसू भर आये। मैं खूब रोया, क्योंकि यह मेरा प्यारा देश न था, यह वो देश न था जिसके दर्शन की लालसा हमेशा मेरे दिल में लहरें लिया करती थीं। यह कोई और देश था। यह अमरीका था, इंग्लिस्तान था, मगर प्यारा भारत नहीं।

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