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सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640
आईएसबीएन :978-1-61301-187

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…


रेलगाड़ी जंगलों, पहाड़ों, नदियों और मैदानों को पार करके मेरे प्यारे गाँव के पास पहुँची जो किसी ज़माने में फूल-पत्तों की बहुतायत और नदी-नालों की प्रचुरता में स्वर्ग से होड़ करता था। मैं गाड़ी से उतरा तो मेरा दिल बाँसों उछल रहा था—अब अपना प्यारा घर देखूँगा, अपने बचपन के प्यारे साथियों से मिलूँगा। मुझे उस वक़्त यह बिल्कुल याद न रहा कि मैं नब्बे बरस का बूढ़ा आदमी हूँ। ज्यों-ज्यों मैं गाँव के पास पहुँचता था, मेरे क़दम जल्द-जल्द उठते थे और दिल में एक ऐसी खुशी लहरें मार रही थी जिसे बयान नहीं किया जा सकता। हर चीज़ पर आँखें फाड़-फाड़ कर निगाह डालता—अहा, यह तो वो नाला है जिसमें हम रोज़ घोड़े नहलाते और खुद गोते लगाते थे मगर अब इसके दोनों तरफ़ काँटेदार तारों की चहार-दीवारी खिंची हुई थी और सामने एक बंग्ला था जिसमें दो-तीन अंग्रेज बंदूकें लिये इधर-उधर ताक रहे थे। नाले में नहलाने की सख़्त मनाही थी। गाँव में गया और आँखें बचपन के साथियों को ढूँढ़ने लगीं मगर अफ़सोस वह सब के सब मौत का निवाला बन चुके थे और मेरा टूटा-फूटा झोंपड़ा जिसकी गोद में बरसों तक खेला था, जहाँ बचपन और बेफ़िक्रियों के मज़े लूटे थे, जिसका नक़्सा अभी तक आँखों में फिर रहा है, वह अब एक मिट्टी का ढेर बन गया था। जगह ग़ैर-आबाद न थीं। सैकड़ों आदमी चलते-फिरते नज़र आये, जो अदालत और कलक्टरी और थाने-पुलिस की बातें कर रहे थे। उनके चेहरे बेजान और फ़िक्र में डूबे हुए थे और वह सब दुनिया की परेशानियों से टूटे हुए मालूम होते थे। मेरे साथियों के से हृष्ट-पुष्ट, सुन्दर नौजवान कहीं न दिखायी दिये। वह अखाड़ा जिसकी मेरे हाथों ने बुनियाद डाली थी, वहाँ अब एक टूटा-फूटा स्कूल था और उसमें गिनती के बीमार शक्ल-सूरत के बच्चे जिनके चेहरों पर भूख लिखी थी, चिथड़े लगाये बैठे ऊँघ रहे थे। नहीं, यह मेरा देश नहीं है। यह देश देखने के लिए मैं इतनी दूर से नहीं आया। यह कोई और देश है, मेरा प्यारा देश नहीं है।

उस बरगद के पेड़ की तरफ़ दौड़ा जिसकी सुहानी छाया में हमने बचपन के मज़े लूटे थे, जो हमारे बचपन का हिंडोला और जवानी की आरामगाह था इस प्यारे बरगद को देखते ही रोना-सा आने लगा और ऐसी हसरत भरी, तड़पानेवाली और दर्दनाक यादें ताज़ी हो गयीं कि घंटों ज़मीन पर बैठकर रोता रहा। यही प्यारा बरगद है जिसकी फुनगियों पर हम चढ़ जाते थे, जिसकी जटाएँ हमारा झूला थीं और जिसके फल हमें सारी दुनिया की मिठाइयों से ज़्यादा मज़ेदार और मीठे मालूम होते थे। वह मेरे गले में बाँहें डालकर खेलने वाले हमजोली जो कभी रूठते थे, कभी मनाते थे, वह कहाँ गये? आह, मैं बेघरबार मुसाफ़िर क्या अब अकेला हूँ? क्या मेरा कोई साथी नहीं। इस बरगद के पास थाना और पेड़ के नीचे एक कुर्सी पर कोई लाल पगड़ी बाँधे बैठा हुआ था। उसके आसपास दस-बीस और लाल पगड़ीवाले हाथ-बाँधे खड़े थे और एक अधनंगा अकाल का मारा आदमी जिस पर अभी-अभी चाबुकों की बौछार हुई थी, पड़ा सिसक रहा था। मुझे ख़याल आया, यह मेरा प्यारा देश नहीं है, यह कोई और देश है, यह योरप है, अमरीका है, मगर मेरा प्यारा देश नहीं है, हरगिज़ नहीं।

इधर से निराश होकर मैं उस चौपाल की ओर चला जहाँ शाम को पिताजी गाँव के और बड़े-बूढ़ों के साथ हुक्का पीते और हँसी-दिल्लगी करते थे। हम भी उस टाट पर कलबाजियाँ खाया करते। कभी-कभी वहाँ पंचायत भी बैठती थी जिसके सरपंच हमेशा पिताजी ही होते थे। इसी चौपाल से लगी हुई एक गोशाला थी जहाँ गाँव भर की गायें रक्खी जाती थीं और हम यहीं बछड़ों के साथ कुलेलें किया करते थे। अफ़सोस, अब इस चौपाल का पता न था। वहाँ अब गाँव के टीका लगाने का स्टेशन और एक डाकखाना था। उन दिनों इसी चौपाल से लगा हुआ एक कोल्हाड़ा था जहाँ जाड़े के दिनों में ऊख पेरी जाती थी और गुड़ की महक से दिमाग़ तर हो जाता था। हम और हमारे हमजोली घंटों गंडेरियों के इंतज़ार में बैठे रहते थे और गंडेरियाँ काटने वाले मज़दूरों के हाथों की तेज़ी पर अचरज करते थे, जहाँ सैकड़ों बार मैंने कच्चा रस और पक्का दूध मिलाकर पिया था। यहाँ आसपास के घरों से औरतें और बच्चे अपने-अपने घड़े लेकर आते और उन्हें रस से भरवाकर ले जाते। अफ़सोस, वह कोल्हू अभी ज्यों के त्यों गड़े हुए हैं मगर देखो, कोल्हाड़े की जगह पर अब एक सन लपेटने वाली मशीन है और उसके सामने एक तंबोली और सिगरेट की दुकान है। इन दिल को छलनी करने वाले दृश्यों से दुखी होकर मैंने एक आदमी से जो सूरत से शरीफ़ नज़र आता था, कहा—बाबा, मैं परदेशी मुसाफ़िर हूँ, रात भर पड़े रहने के लिए मुझे जगह दे दो। इस आदमी ने मुझे सर से पैर तक घूर कर देखा और बोला—आगे जाओ, यहाँ जगह नहीं है। मैं आगे गया और यहाँ से फिर हुक्म मिला—आगे जाओ। पांचवीं बार सवाल करने पर एक साहब ने मुट्ठी भर चने हाथ पर रख दिये। चने मेरे हाथ से छूटकर गिर पड़े और आँखों से आँसू बहने लगे। हाय, यहा मेरा प्यारा देश नहीं है, यह कोई और देश है। यह हमारा मेहमान और मुसाफ़िर की आवभगत करने वाला प्यारा देश नहीं, हरगिज़ नहीं।

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