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सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640
आईएसबीएन :978-1-61301-187

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…


मसऊद का जिस्म जख्मों से छलनी हो गया। खून के फव्वारे जारी थे और खून की प्यासी तलवारें ज़बान खोले बार-बार उसकी तरफ़ लपकती थीं और उसका खून चाटकर अपनी प्यास बुझा लेती थीं। कितनी ही तलवारें उसकी ढाल से टकराकर टूट गयीं, कितने ही बहादुर सिपाही जख़्मी होकर तड़पने लगे और कितने ही उस दुनिया को सिधारे। मगर मसऊद के हाथ में वह आबदार शमशीर ज्यों-की-त्यों बिजली की तरह कौंधती और सुथराव करती रही। यहाँ तक कि इस फ़न के कमाल को समझने वाली मलिका ने खुद उसकी तारीफ़ का नारा बुलन्द किया और उसके तेगे को चूमकर बोली—मसऊद तू बहादुरी के समुन्दर का मगर है। शेरों के शिकार में वक़्त बर्बाद मत कर। दुनिया में शिकार के अलावा और भी ऐसे मौके हैं जहाँ तू अपने आबदार तेग़ का जौहर दिखा सकता है। जा और मुल्कोक़ौम की ख़िदमत कर। सैरो शिकार हम जैसी औरतों के लिए छोड़ दे।

मसऊद के दिल ने गुदगुदाया, प्यार की बानी ज़बान तक आयी मगर बाहर निकल न सकी और उसी वक़्त वह अपने दिल में किसी की पलकों की टीस लिये हुए तीन हफ़्तों के बाद अपनी बेक़रार माँ के क़दमों पर जा गिरा।

नमकख़ोर सरदार की फ़ौज रोज़-ब-रोज़ बढ़ने लगी। पहले तो वह अँधेरे के पर्दे में शाही ख़जानों पर हाथ बढ़ाता रहा, धीरे-धीरे एक बाक़ायदा फ़ौज तैयार हो गयी। यहाँ तक सरदार को शाही फ़ौजों के मुक़ाबले में अपनी तलवार आजमाने का हौसला हुआ, और पहली ही लड़ाई में चौबीस क़िले इस नयी फ़ौज के हाथ आ गये। शाही फ़ौज ने लड़ने में ज़रा भी कसर न की मगर वह ताक़त, वह जोश, वह जज़्बा जो सरदार नमकख़ोर और उसके दोस्तों के दिलों को हिम्मत के मैदान में आगे बढ़ाता रहता था किशवरकुशा दोयम के सिपाहियों में ग़ायब था। लड़ाई के कला-कौशल, हथियारों की खूबी और ऊपर दिखायी पड़ने वाली शान-शौकत के लिहाज़ से दोनों फ़ौजों का कोई मुक़ाबला न था। बादशाह के सिपाही भी लहीम-शहीम, लम्बे-तड़ंगे और आज़माये हुए थे। उनके साज-सामान और तौर-तरीक़े देखने वालों के दिलों पर एक डर-सा छा जाता था और वह भी यह गुमान कर सकता था कि इस ज़बर्दस्त जमात के मुक़ाबले में निहत्थी-सी, अधनंगी बेक़ायदा सरदारी फ़ौज एक पल के लिए भी पैर जमा सकेगी। मगर जिस वक़्त ‘मारो’ की दिल बढ़ाने वाली पुकार हवा में गूँजी एक अजीबोग़रीब नज़्जारा सामने आया। सरदार के सिपाही तो नारे मारकर आगे धावा करते थे और बादशाह की फ़ौज भागने की राह पर दबी हुई निगाहें डालती थी। दम की दम में मोर्चे गुबार की तरह फट गये और जब मस्क़ात के मज़बूत क़िले में सरदार नमकख़ोर शाही क़िलेदार की मसनद पर अमीराना ठाट-बाट में बैठा और अपनी फ़ौज की कारगुजारियों और जाबांजियों का इनाम देने के लिए एक तश्त में सोने की तमग़ मँगवाकर रक्खे तो सबसे पहले जिस सिपाही का नाम पुकारा गया वह नौजवान मसऊद था।

मसऊद पर इस वक़्त उसकी फौज़ घमंड करती थी। लड़ाई के मैदान में सबसे पहले उसी की तलवार चमकती थी और धावे के वक़्त सबसे पहले उसी के क़दम उठते थे। दुश्मन के मोर्चों में ऐसा बेधड़क घुसता था जैसे आसमान में चमकता हुआ लाल तारा। उसकी तलवार के बार क़यामत थे और उसके तीर का निशाना मौत का सन्देश।

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