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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670
आईएसबीएन :978-1-61301-144

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


बाहर तो यह चरित्र हो रहा था, भीतर प्रेमवती छाती पीट रही थी कि लड़का न जाने क्या करने पर तत्पर हुआ है? विरजन को बुलाकर कहा– बेटी? बच्चे को किसी प्रकार रोको। न-जाने उसने मन में क्या ठानी है? यह कहकर रोने लगी! विरजन को भी सन्देह हो रहा था कि अवश्य इनकी कुछ और नीयत है नहीं तो यह क्रोध क्यों? यद्यपि कमला दुर्व्यसनी था, दुराचारी था, कुचरित्र था, परन्तु इन सब दोषों के होते हुए भी उसमें एक बड़ा गुण भी था, जिसका कोई स्त्री अवहेलना नहीं कर सकती। उसे वृजरानी से सच्ची प्रीति थी। और इसका गुप्त रीति से कई बार परिचय भी मिल गया था। यही कारण था जिसने विरजन को इतना गर्वशील बना दिया था। उसने कागज निकाला और यह पत्र बाहर भेजा।

“प्रियतम,
यह कोप किस पर है? केवल इसीलिए कि मैंने दो-तीन कनकौए फाड़ डाले? यदि मुझे ज्ञात होता कि आप इतनी-सी बात पर ऐसे क्रुद्व हो जायेंगे, तो कदापि उन पर हाथ न लगाती। पर अब तो अपराध हो गया, क्षमा कीजिये। यह पहला कसूर है

आपकी
वृजरानी।”


कमलाचरण यह पत्र पाकर ऐसा प्रमुदित हुआ, मानो सारे जगत की संपत्ति प्राप्त हो गयी। उत्तर देने की इच्छा हुई, पर लेखनी ही नहीं उठती थी। न प्रशस्ति मिलती है, न प्रतिष्ठा, न आरंभ का विचार आता, न समाप्ति का। बहुत चाहते हैं कि भावपूर्ण लहलहाता हुआ पत्र लिखूं, पर बुद्वि तनिक भी नहीं दौड़ती। आज प्रथम बार कमलाचरण को अपनी मूर्खता और निरक्षरता पर रोना आया। शोक! मैं एक सीधा-सा पत्र भी नहीं लिख सकता। इस विचार से वह रोने लगा और घर के द्वार सब बन्द कर लिए कि कोई देख न ले।

तीसरे पहर जब मुंशी श्यामाचरण घर आये, तो सबसे पहली वस्तु जो उनकी दृष्टि में पड़ी, वह आग का अलाव था। विस्मित होकर नौकरों से पूछा– यह अलाव कैसा?

नौकरों ने उत्तर दिया– सरकार! दरबा जल रहा है।

मुंशीजी– (घुड़ककर) इसे क्यों जलाते हो? अब कबूतर कहाँ रहेंगे?

कहार– छोटे बाबू की आज्ञा है कि सब दरबे जला दो।

मुंशीजी– कबूतर कहाँ गये?

कहार– सब उड़ा दिये, एक भी नहीं रखा। कनकौए सब फाड़ डाले, डोर जला दी, बड़ा नुकसान किया।

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