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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670
आईएसबीएन :978-1-61301-144

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


अब विदा होती हूँ। अपराध क्षमा करना। तुम्हारी चेरी हूँ जैसे रखोगे वैसे रहूँगी। यह अबीर और गुलाल भेजती हूँ। यह तुम्हारी दासी का उपहार है। तुम्हें हमारी शपथ मिथ्या सभ्यता के उमंग में आकर इसे फेंक न देना, नहीं तो मेरा हृदय दुखी होगा।

तुम्हारी,
विरजन

 

(५)

मझगाँव

‘प्यारे!
तुम्हारे पत्र ने बहुत रुलाया। अब नहीं रहा जाता। मुझे बुला लो। एक बार देखकर चली आऊंगी। सच बताओ, यदि मैं तुम्हारे यहाँ आ जाऊं, तो हँसी तो न उड़ाओगे? न जाने मन में क्या समझोगे? पर कैसे आऊं? तुम लालाजी को लिखो। खूब! कहेंगे यह नयी धुन समाई है।

कल चारपाई पर पड़ी थी। भोर हो गया था, शीतल मन्द पवन चल रहा था कि स्त्रियों के गाने का शब्द सुनायी पड़ा। स्त्रियाँ अनाज का खेत काटने जा रही थीं। झाँककर देखा तो दस-दस बारह-बारह स्त्रियों का एक-एक गोल था। सबके हाथों में हंसिया, कन्धों पर गठियाँ बाँधने की रस्सी और सिर पर भुने हुए मटर की छबड़ी थी। ये इस समय जाती हैं, कहीं बारह बजे लौटेंगी। आपस में गाती, चुहलें करती चली जाती थीं।

दोपहर तक बड़ी कुशलता रही। अचानक आकाश मेघाच्छन्न हो गया। आँधी आ गई और ओले गिरने लगे। मैंने इतने बड़े ओले गिरते न देखे थे। आलू से बड़े और ऐसी तेजी से गिरे जैसे बन्दूक से गोली। क्षण-भर में पृथ्वी पर एक फुट ऊंचा बिछावन बिछ गया। चारों तरफ से कृषक भागने लगे। गायें, बकिरयाँ, भेड़ें सब चिल्लाती हुई पेड़ों की छाया ढूँढ़ती, फिरती थीं। मैं डरी कि न-जाने तुलसा पर क्या बीती। आंखें फैलाकर देखा तो खुले मैदान में तुलसा, राधा और मोहिनी गाय दीख पड़ी। तीनों घमासान ओले की मार में पड़े थे! तुलसा के सिर पर एक छोटी-सी टोकरी थी और राधा के सिर पर एक बड़ा-सा गट्ठा। मेरे नेत्रों में आंसू भर आये कि न जाने इन बेचारों की क्या गति होगी। अकस्मात एक प्रखर झोंके ने राधा के सिर से गट्ठा गिरा दिया। गट्ठा का गिरना था कि चट तुलसा ने अपनी टोकरी उसके सिर पर औंधा दी। न-जाने उस पुष्प ऐसे सिर पर कितने ओले पड़े। उसके हाथ कभी पीठ पर जाते, कभी सिर सहलाते। अभी एक सेकेण्ड से अधिक यह दशा न रही होगी कि राधा ने बिजली की भाँति लपककर गट्ठा उठा लिया और टोकरी तुलसा को दे दी। कैसा घना प्रेम है!

अनर्थकारी दुर्दैव ने सारा खेल बिगाड़ दिया! प्रातःकाल स्त्रियाँ गाती हुई जा रही थीं। सन्ध्या को घर-घर शोक छाया हुआ था। कितनों के सिर लहू-लुहान हो गये, कितने हल्दी पी रहे हैं। खेती सत्यानाश हो गयी। अनाज बर्फ के तले दब गया। ज्वर का प्रकोप है सारा गाँव अस्पताल बना हुआ है। काशी भर का भविष्य प्रवचन प्रमाणित हुआ। होली की ज्वाला का भेद प्रकट हो गया। खेती की यह दशा और लगान उगाही जा रहा है। बड़ी विपत्ति का सामना है। मार-पीट, गाली, अपशब्द सभी साधनों से काम लिया जा रहा है। दोनों पर यह दैवी कोप!

तुम्हारी
विरजन

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