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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670
आईएसबीएन :978-1-61301-144

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


जब कभी बैठे-बैठे माधवी का जी बहुत आकुल होता तो वह प्रतापचन्द्र के घर चली जाती। वहां उसके चित्त को थोड़ी देर के लिए शांति मिल जाती थी। यह भवन माधवी के लिए एक पवित्र मंदिर था। जब तक विरजन और सुवामा के हृदयों में ग्रन्थि पड़ी हुई थी वह यहाँ बहुत कम आती थी। परन्तु जब अन्त में विरजन के पवित्र और आदर्श जीवन ने यह गांठ खोल दी वे गंगा-यमुना की भांति परस्पर गले मिल गयीं, तो माधवी का आवागमन भी बढ़ गया। सुवामा के पास दिन-दिन भर बैठी रह जाती, इस भवन की, एक-एक अंगुल पृथ्वी प्रताप का स्मारक थी। इसी आँगन में प्रताप ने काठ के घोड़े दौड़ाये थे और इसी कुण्ड में कागज की नावें चलाई थीं। नौकाएं तो स्यात् काल के भंवर में पड़कर डूब गयीं, परन्तु घोड़ा अब भी विद्वमान था। माधवी ने उसकी जर्जरित अस्थियों में प्राण डाल दिया और उसे वाटिका में कुण्ड के किनारे एक पाटलवृक्ष की छाया में बांध दिया। यही भवन प्रतापचन्द्र का शयनागार था। माधवी अब उसे अपने देवता का मन्दिर समझती है। इस पलंग ने प्रताप को बहुत दिनों तक अपने अंक में थपक-थपककर सुलाया था। माधवी अब उसे पुष्पों से सुसज्ज्ति करती है। माधवी ने इस कमरे को ऐसा सुसज्जित कर दिया, जैसे वह कभी न था। चित्रों के मुख पर से धूल की यवनिका उठ गयी। लैम्प का भाग्य पुनः चमक उठा। माधवी की इस अनन्य प्रेम-भक्ति से सुवामा का दुःख भी दूर हो गया। चिरकाल से उसके मुख पर प्रतापचन्द्र का नाम अभी न आया था। विरजन से मेल-मिलाप हो गया, परन्तु दोनों स्त्रियों में कभी प्रतापचन्द्र की चर्चा भी न होती थी। विरजन लज्जा की संकुचित थी और सुवामा क्रोध से। किन्तु माधवी के प्रेमानल से पत्थर भी पिघल गया। अब वह प्रेमविह्वल होकर प्रताप के बालपन की बातें पूछने लगती तो सुवामा से न रहा जाता। उसकी आँखों से जल भर आता। तब दोनों की दोनों रोती और दिन-दिन भर प्रताप की बातें समाप्त न होतीं। क्या अब माधवी के चित्त की दशा सुवामा से छिप सकती थी? वह बहुधा सोचती कि क्या तपस्विनी इसी प्रकार प्रेमाग्नि में जलती रहेगी और वह भी बिना किसी आशा के? एक दिन वृजरानी ने ‘कमला’ का पैकेट खोला, तो पहले ही पृष्ठ पर एक परम प्रतिभापूर्ण चित्र, विविध रंगों में दिखायी पड़ा। यह किसी महात्मा का चित्र था। उसे ध्यान आया कि मैंने इस महात्मा को कहीं अवश्य देखा है। सोचते-सोचते अकस्मात उसका घ्यान प्रतापचन्द्र तक जा पहुंचा। आनन्द के उमंग में उछल पड़ी और बोली– माधवी, तनिक यहां आना।

माधवी फूलों की क्यारियां सींच रहीं थी। उसके चित्त-विनोद का आजकल यही कार्य था। वह साड़ी-पानी में लथपथ, सिर के बाल बिखरे, माथे पर पसीने के बिन्दु और नत्रों में प्रेम का रस भरे हुए आकर खड़ी हो गयी। विरजन ने कहा– आ तुझे एक चित्र दिखाऊं।

माधवी ने कहा– किसका चित्र है, देखूं।

माधवी ने चित्र को ध्यानपूर्वक देखा। उसकी आंखों में आंसू आ गए।

विरजन– पहचान गई?

माधवी– क्यों? यह स्वरूप तो कई बार स्वप्न में देख चुकी हूं? बदन से कांति बरस रही है।

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