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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670
आईएसबीएन :978-1-61301-144

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


विरजन– देखो वृतान्त भी लिखा है।

माधवी ने दूसरा पन्ना उल्टा तो ‘स्वामी बालाजी’ शीर्षक लेख मिला थोड़ी देर तक दोनों तन्मय होकर यह लेख पढ़ती रहीं, तब बातचीत होने लगी;

विरजन– मैं तो प्रथम ही जान गयी थी कि उन्होंने अवश्य संन्यास ले लिया होगा।

माधवी पृथ्वी की ओर देख रही थी, मुख से कुछ न बोली।

विरजन– तब में और अब में कितना अन्तर है। मुखमण्डल से कांति झलक रही है। तब ऐसे सुन्दर न थे।

माधवी– हूं।

विरजन– ईश्वर उनकी सहायता करे! बड़ी तपस्या की है। (नेत्रों में जल भरकर) कैसा संयोग है। हम और वे संग-संग खेले, संग-संग रहे, आज वे संन्यासी हैं और मैं वियोगिनी। न जाने उन्हें हम लोगों की कुछ सुध भी है या नहीं। जिसने संन्यास ले लिया, उसे किसी से क्या मतलब? जब चाची के पास पत्र न लिखा तो भला हमारी सुधि क्या होगी? माधवी! बालकपन में वे कभी योगी-योगी खेलते तो मैं मिठाइयों कि भिक्षा दिया करती थी।

माधवी ने रोते हुए ‘न– जाने कब दर्शन होंगे’ कहकर लज्जा से सिर झुका लिया।

विरजन– शीघ्र ही आयेंगे। प्राणनाथ ने यह लेख बहुत सुन्दर लिखा है।

माधवी– एक-एक शब्द से भक्ति टपकती है।

विरजन– वक्तृता की कैसी प्रशंसा की है! उनकी वाणी में तो पहले ही जादू था, अब क्या पूछना! प्राणनाथ के चित्त पर जिसकी वाणी का ऐसा प्रभाव हुआ, वह समस्त पृथ्वी पर अपना जादू फैला सकता है।

माधवी– चलो चाची के यहाँ चलें।

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