धर्म एवं दर्शन >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
धर्म
मेरे प्रिय आत्मन,
अपना अनुभव ही सत्य है और इसके अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं है। जिस बोलने के साथ यह आग्रह होता है कि मैं कहता हूँ, उस पर इसलिए विश्वास करो क्योंकि मैं कहता हूँ। जिस बोलने के लिए श्रद्धा की मांग की जाती है--अंधी श्रद्धा की वह, बोलना उपदेश बन जाता है। मेरी न तो यह मांग है कि मैं कहता हूँ उस पर आप विश्वास करें। मेरी तो मांग ही यही है कि उस पर भूलकर भी विश्वास न करें। न ही मेरा यह कहना है कि जो मैं कहता हूँ वही सत्य है। इतना ही मेरा कहना है कि किसी के भी कहने के आधार पर सत्य को स्वीकार मत करना, और मेरे कहने के आधार पर भी नहीं।
सत्य तो प्रत्येक व्यक्ति की निजी खोज है। कोई दूसरा किसी को सत्य नहीं दे सकता। मैं भी नहीं दे सकता हूँ, कोई दूसरा भी नहीं दे सकता है। सत्य दिया नहीं जा सकता, पाया जरूर जा सकता है। इसलिए मैं जो कह रहा हूँ, उससे आपको कोई सत्य की शिक्षा दे रहा हूँ, ऐसा नहीं है। फिर पूछा है कि मैं उपदेश क्यों दे रहा हूँ?
न ही इसमें मुझे कोई आनंद उपलब्ध होता है कि आप जो मैं कहूँ, प्रशंसा करें, उसके लिए तालियां बजाएं, उसका समर्थन करें। न ही मेरा यह कोई व्यवसाय है। फिर मैं क्यों कुछ बातें कह रहा हूँ। एक आदमी को दिखाई पड़ता हो कि आप जिस रास्ते पर जा रहे हैं वह रास्ता गड्ढों में कांटों में ले जाने वाला है और आपसे कह दे कि इस रास्ते पर कांटे हैं और रगढे हैं। वह आपको कोई उपदेश नहीं दे रहा है। वह केवल इतना कह रहा है कि जिस रास्ते से मैं परिचित हूँ उस रास्ते पर उसी गड्ढे में उन्हीं कांटों में किसी को जाते हुए देखना अमानवीय है, चुपचाप देख लेना अमानवीय है, अत्यत हिंसक कृत्य है।
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