धर्म एवं दर्शन >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
यह धार्मिक क्रांति का तीसरा सूत्र है--आनंद का, अनुग्रह का, ग्रेटीट्यूड का भाव। यह भाव जितना गहरा और विकसित होता चला जाता है उतना ही जीवन रूपांतरित होता है और उतने ही पदार्थ में उसके दर्शन होने लगते हैं जो पदार्थ नहीं। और उतने ही पार्थिव में उसकी झलक मिलने लगती है जो अपार्थिव है। फिर सीमाओं में असीम उतरने लगता और रेखाओं के बीच वह दिखायी पड़ने लगता है जो रेखाओं में बंधता नहीं है। फिर शब्दों में निःशब्द के दर्शन होते हैं और फिर सब ओर--सब ओर, सब दिशाओं, सबके भीतर और सबके बाहर उस एक ही ज्योति फैलनी शुरू हो जाती है और उस ज्योति में व्यक्ति स्वर्ग भी लीन हो जाता है और एक हो जाता है। जीवन के साथ यह एकता और लीनता ही मुक्ति है, जीवन के विरोध में नहीं। जीवन में डूबकर वह उपलब्ध होता है जो प्रभु है।
अंत में फिर दोहरा दूं--पहली कड़ी विश्वास नहीं, अंधापन नहीं, विचार। दूसरी कड़ी ज्ञान नहीं, थोथा ज्ञान नहीं, शब्दों और शास्त्रों से सीखा ज्ञान नहीं बल्कि विस्मय-विमुग्धता। और तीसरी बात जीवन की असारता, दुख का भाव नहीं, निराशा नहीं, उदासी नहीं, अंधकार नहीं। आनंद की भावदशा अनुग्रह का भाव, धन्यवाद, कृतज्ञता मनुष्य के जीवन में क्रांति लाती है और प्रभु के मंदिर के द्वार पर उसे खड़ा कर देती है।
प्रभु करे, हम सभी प्रभु के मंदिर में पहुँच जाएं। प्रभु करे, हम पत्थर तोड़ने वाले मजदूर न हों। प्रभु करे, हम रोटी कमाने वाले मजदूर न हों। प्रभु करे, हम प्रभु के मंदिर बनाने वाले कारीगर हों।
मेरी इन बातों को इतनी शांति, इतने प्रेम से सुना उसके लिए बहुत-बहुत अनुगहीत हूँ और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूँ, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
दिनांक १५ मार्च, १९६८ सुबह
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