धर्म एवं दर्शन >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
धर्म पूजा बन गया, साधना नहीं बन सका। इसीलिए साधना पैदा होती है--आत्मचिंतन और आत्मविचार से। और तथाकथित उपासना के धर्म पैदा होते हैं पूजा और वर्शिप से। तो अब तक हमने दुनिया में जो भी ज्योतियां प्रकट हुई, उन ज्योतियों के आसपास घुटने टेककर आँखें बंद कर ली और जयजयकार करने लगे, बिना इस बात की फिकर किए कि ज्योति जिनमें प्रकट हुई थी, वे ठीक हमारे जैसे मनुष्य हैं। कोई ईश्वर का पुत्र नहीं है, कोई अवतार नहीं है, कोई तीर्थंकर नहीं है, सभी हमारे जैसे मनुष्य हैं। लेकिन अगर हम यह समझ लें कि वे हमारे जैसे मनुष्य हैं तो हमको बडी कठिनाई हो जाएगी, बडी पीड़ा हो जाएगी। फिर हमारे सवाल होगा कि हम क्यों पीछे पड़े हैं? हम क्यों अंधेरे में भटक रहे हैं? फिर हमको भी ऊपर उठना चाहिए। इससे बचने के लिए हमने कहा कि वह मनुष्य की नहीं है। हम तो मनुष्य हैं, वे महामानव हैं। वे जो कर सकते हैं, हम कैसे कर सकते हैं? हमारा बीज ही अलग है, उनका बीज ही अलग है। वह अद्वितीय है, वह भिन्न ही है। तो हमने उस सबके चारों तरफ अद्वितीयता की महिमा को मंडित कर दिया। उनके शब्दों के आसपास सर्वज्ञता जोड़ दी कि वे बातें जो हैं, सर्वज्ञों की कही हुई हैं, कभी भूल भरी नहीं हो सकती हैं। हमने उनके आसपास प्रामाणिक जोड़ दी। आप्तता जोड दी। और इस आप्तता को जोड़कर हमने बचनों को शास्त्र बना दिया और जाग्रत पुरुषों को हमने अपौरुषेय बना दिया। उनको हमने महामहिम बना दिया और परमात्मा के अवतार बना दिया। हमारे और उनके बीच हमने एक दूरी पैदा कर ली। दूरी के कारण हम निन्दित हो गए, हमारी आत्मग्लानि समास हो गयी। मनुष्य जाति इस कारण भटकी है और आज भी हमारे इरादे यही हैं कि हम इन्हीं बातों को जारी रखें और आगे भी भटकने की ही तैयारी कर रहे हैं।
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