धर्म एवं दर्शन >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
इस घटना से इसलिए अपनी बात शुरू करना चाहता हूँ कि हम सब जीवन में करीब-करीब ऐसी ही हालत में खड़े हैं जहाँ हमें कोई भी पता नहीं कि हम कौन हैं। अपने होने का ही कोई बोध नहीं है। जीते हैं, लेकिन जीवन से कोई साक्षात्कार नहीं हुआ। श्वास लेते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, फिर एक दिन समास हो जाते हैं। लेकिन ज्ञान नहीं हो पाता कि कौन था जो जन्मा, कौन था जो जीया, कौन था जो समाप्त हो गया।
इतने अज्ञान से भरे हुए जीवन में कोई आनंद हो सकता है? इतने अज्ञान से भरे हुए जीवन में कोई प्रेम हो सकता है? इतने अज्ञान से भरे जीवन में कोई उपलब्धि हो सकती है? इतने अज्ञान से भरे जीवन में कोई अर्थ, कोई प्रयोजन, कोई सार्थकता हो सकती है? नहीं हो सकती है, नहीं है। इसीलिए मनुष्य जाति इतनी उदास, इतनी चिंतित, इतनी भयभीत, इतनी दुखी, इतनी विपन्न मालूम पड़ती है। जैसे कोई वृक्ष की जड़ें हिला दी गयी हों, जैसे किसी वृक्ष को जड़ों से उखाड़ दिया गया हो, ऐसी मनुष्य जाति अपरूटेड, जैसे सारी जड़ें हिल गयी हों, ऐसी मालूम पड़ती है।
ये जड़ें किस चीज से हिल गयी हैं? मनुष्य को यह भी पता न रह जाए कि मैं कौन हूं तो उसकी जड़ें जीवन से हिल जाती हैं। जीवन का--शुभ जीवन का, सुंदर जीवन का, आनंदपूर्ण जीवन का अगर कोई आधार हो सकता है तो एक ही हो सकता है कि व्यक्ति कम से कम इतना तो जान ले कि वह कौन है, और क्या है और किसलिए है?
मनुष्य के सामने हमेशा से खड़ा हुआ प्रश्न एक ही है, और हम अपने को कितना ही भुलाने की कोशिश करें, कितना ही उलझाने की कोशिश करें, वह प्रश्न हमारे सामने से हटता नहीं, जब तक कि हल न हो जाए। हम कितना ही धन इकट्ठा कर लें और कितने ही महल इकट्ठे कर लें और कितना ही यश अर्जित कर लें, लेकिन एक प्रश्न बीच-बीच में बार-बार खड़ा हो जाता है--मैं कौन? मैं किसलिए हूं? इस जीवन का क्या अर्थ है? फिर हम काम में लग जाते हैं कि भूले रहें, भूले रहें। लेकिन यह प्रश्न पीछा नहीं छोड़ेगा। यह जीवन का पहला प्रश्न है, और पहले प्रश्न को जो हल नहीं कर पाता वह भी हल नहीं कर पाएगा। जीवन भर यह प्रश्न उसका पीछा करेगा, और जिस आदमी का यह प्रश्न पीछा करता है कि मैं कौन हूं, वह आदमी कभी भी निश्विंत नहीं हो सकता। उसके जीवन में चिंता बनी ही रहेगी।
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