धर्म एवं दर्शन >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
किस बात को आप मनोरंजन कहते हैं? जहाँ आप घड़ी दो घड़ी अपने को भूल जाते हैं। संगीत में, सिनेमा में, शराब में, मित्रों में मंडल में, भजन कीर्तन में, मंदिर में, प्रार्थना में, जहाँ भी आप थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं आप कहते हैं, बड़ा अच्छा लगा। लेकिन अपने को भूलना आत्मघाती है, स्वसाइडल है। अपने को जानना है, भूलना नहीं है। भूलकर क्या हल होगा? कौन-सी समस्या सुलझ जाएगी? नींद में पड़ जाने से कौन-सी समस्या का अंत आ जाएगा? लेकिन आदमी ने आज तक अपने को भुलाने की कोशिश की है, उन लोगों ने तो कोशिश ही की है जिन्हें हम सांसारिक कहते हैं, जिन्हें हम धार्मिक कहते हैं। तथाकथित धार्मिक लोगों ने भी स्वयं को भुलाने की कोशिश की है।
प्रश्न है कि मैं हूं। और इसके हमने कुछ रेडिमेड उत्तर तैयार कर रखे हैं जो कि भुलाने के लिए तरकीब का काम करते हैं। जब प्रश्न उठता है कि कौन हूं? हम में खोजते हैं, वहाँ उत्तर मिल जाते हैं कि तुम तो परमात्मा हो, तुम ब्रह्म हो, तुम तो आत्मा हो। फिर उन उत्तरों को हम पकड़ लेते हैं और दोहराने लगते हैं मैं आत्मा हूं, मैं ब्रह्म हूं, मैं परमात्मा हूं। रोज सुबह शाम हम इसे दोहराने में लग जाते हैं। शायद हम सोचते होंगे कि दोहराने से समस्या हल हो जाएगी? शायद हम सोचते होंगे इस भांति किसी विचार को, शब्द को पकड़कर बार- बार स्मरण करने से जीवन का प्रश्न समाप्त हो जाएगा। शब्द असत्य और कुछ भी नहीं है। शब्द बिलकुल ताश के पत्तों जैसा है। ताश के पत्ते दे दिए जाएं तो हम तरकीब के घर बना सकते हैं ताश के पत्तों से, लेकिन ताश के पत्तों का घर हवा का जरा सा झोंका, और गिर जाते हैं शब्दों से जो हम घर बनाते हैं, शब्दों से भी जो हम अपने भीतर समस्याओं को हल करने की कोशिश करते हैं वह ताश के पत्तों से भी कमजोर चीज। शब्द का कोई प्राण ही नहीं, शब्द का कोई अस्तित्व ही नहीं। शब्द में कोई ठोसपन नहीं, शब्द तो बिलकुल हवा में खींची गयी लकीर की तरह है। और हमने सारी समस्याओं को शब्दों से हल करने की कोशिश की है। इसलिए समस्याएं तो वहीं की वहीं है, आदमी शब्दों में उलझकर नष्ट हुआ जा रहा है आदमी के ऊपर जो सबसे बडा दुर्भाग्य है वह शब्दों के ऊपर विश्वास सबसे बड़ा दुर्भाग्य है जिसके कारण जीवन की कोई समस्या हल नहीं हो पाती।
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