धर्म एवं दर्शन >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
प्रश्न-- यह तो माना कि वह गुलामी समाज रचना थी।
उत्तर-- कैटेग्रीकली। जैसे चोरी की हमेशा निंदा करता रहा है धर्म, लेकिन शोषण की कभी निंदा नहीं की है किसी धर्मग्रंथ ने आज तक। चोरी की निंदा करते रहे हैं धर्मग्रंथ की चोरी मत करो क्योंकि चोरी है गरीब का कृत्य अमीर के खिलाफ। क्योंकि चोरी तो वह करेगा जिसके पास नहीं हैं और उससे करेगा जिसके पास है। तो चोरी के लिए तो सारी दुनिया के धर्मग्रंथ कहते हैं कि यह पाप है बुरा है। लेकिन कोई धर्मग्रंथ यह नहीं कहता कि संपत्ति का इतना इकट्ठा करना पाप है बुरा है बल्कि वे कहते यह हैं कि संपत्ति मिलती पुण्य से है। जिसको मिली है संपत्ति उसको पुण्य से मिली है। तो संपत्ति वाले के लिए उनकी दृष्टि है कि वह पुण्यात्मा है इसलिए उसे संपत्ति मिली है और चोरी करने का विरोध है।
यह जो माइंड है चोरी का विरोध करने वाला और शोषण के संबंध में एक शब्द भी विरोध में नहीं कहेगा--यह जो माइंड है, मैं जानता हूं, यह बात सच है कि दो हजार साल पहले यह माइंड पैदा भी नहीं हो सकता था। आप ठीक कहते हैं कि जब उत्पादन के साधन इतने विकसित होंगे, तो आज हम कह सकते हैं वह दो हजार साल पहले कहा भी नहीं जा सकता था। लेकिन वह जो दो हजार साल पहले कहा गया था, अगर आज भी हम उसे कहे चले जाते हैं तो क्रांति में बाधा पड़ने वाली है। यह जिम्मा इतना नहीं है कि बुद्ध और महावीर और क्राइस्ट और कृष्ण को हम जिम्मेवार ठहराएं कि तुम शोषण करवा रहे हो। लेकिन जो कुछ उन्होंने कहा है, उससे जो माइंड बना है, वह माइंड शोषण को जारी रखेगा। आज उस माइंड को बिना बदले हुए आप कोई क्रांति नहीं ला सकते।
फिर जो उत्पादन की व्यवस्था है, वह भीतर भी अगर आप गौर से समझेंगे तो उत्पादन की व्यवस्था भी आसमान से पैदा नहीं होती है। वह भी मानसिक व्यवस्था से पैदा होती है। आपने क्यों इंडस्ट्रियल क्रांति नहीं कर ली हिंदुस्तान में? वह योरूप में क्यों हुयी? आपका जो माइंड है वह माइंड कभी इंडस्ट्री पैदा करने वाला नहीं रहा। आपको जो मेकअप है माइंड का पश्विम में क्यों सपत्ति इतनी जोर की इकट्ठा हो गयी अमरीका के पास? आपके पास क्यों नहीं हो सकी? आपका जो माइंड है वह दरिद्रता को आदर देने वाला है, संपत्ति को कभी उसने आदर दिया नहीं। उसके मन का भाव है कि संपत्ति तो कोई जरूरी बात नहीं है। आदमी तो जितना कम से कम में गुजार दे उतना अच्छा है। जिस कौम का दिमाग यह होगा कि जरूरत कम करो, वह कभी संपत्ति पैदा नहीं कर सकती। और जब संपत्ति पैदा करने की धारणा ही पैदा न हो तो हम बड़ा उत्पादन की व्यवस्था और मेकेनाइजेशन और सेंट्रलाइजेशन वह कैसे करेंगे? और वही प्रपीच्चल, वही बात गांधी फिर दोहराए चले जा रहे हैं। जब वे चर्खे पर जोर देते हैं तो वह भारत की पुरानी जड़ता है, वह जो दरिद्रता को बनाए रखने की, उस पर फिर जोर दे रहे हैं क्योंकि चर्खा कभी भी किसी मुल्क को संपत्तिशाली नहीं बना सकता है। चर्खे से कोई मुल्क संपत्तिशाली नहीं बन सकता है।
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