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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

मैंने सुना है। एक क्रोधी बाप का बेटा घर छोड़कर भाग गया था। उसने अखबार में विज्ञापन निकलवाया कि प्यारे बेटे, तुम वापस आ जाओ। तुम्हारी मां तुम्हारे प्रेम में बहुत दुखी है और दिन-रात रो रही है। मैं खुद भी तुम्हारे प्रेम में पागल हुआ जा रहा हूँ। शीघ्र वापस लौट आओ। और अंत की पंक्ति थी कि अगर वापस न लौटे तो चमड़ी उधेड़ दूंगा। वह सारी प्रेम की बातचीत--और शायद क्रोध में उसे खयाल ही न रहा कि अगर वापस न लौटे तो चमड़ी उधेड़ दूंगा। तो तुम चमड़ी उधेड़ोगे कहाँ, जब वह वापस ही नहीं लौटेगा?

लेकिन लड़का फिर वापस नहीं लौटा। क्योंकि लड़के ने समझ लिया होगा कि न लौटने पर तो चमड़ी नहीं उधेड़ी जा सकती, लेकिन लौटने पर उसका उधेड़ा जाना निश्चित है।

यह बिचारे का प्रेम कितने दूर तक जाएगा--ऊपर-ऊपर होगा। पीछे, पीछे वह मौजूद है आदमी, जो वह है। हमारी सारी इन आदर्शों की बातचीत में--प्रेम की, अहिंसा की, दया की--भीतर हमारी हिंसा, हमारा क्रोध, हमारी कूरता सब मौजूद होती है।

मैंने सुना है एक सुबह एक पति अपना अखबार पढ़ रहा था। उसकी पत्नी ने उसे अखबार पढ़ते देखकर चिंता अनुभव की होगी। क्योंकि पत्नियां यह कभी पसंद नहीं करतीं कि उनका पति उनके अतिरिक्त और किसी चीज में उत्सुक हो। अखबार में भी उत्सुक हो तो ईर्ष्या पैदा होती है। तो उस पत्नी ने कहा कि ऐसा मालूम होता है कि अब तुम मुझे प्रेम नहीं करते। मैं आधे घंटे से बैठी हूँ लेकिन तुमने मेरी तरफ देखा नहीं, तुम अपना अखबार ही पढ़े जाते हो। उसके पति ने कहा, गलती में हो तुम। अब तो मैं तुम्हें और भी ज्यादा प्रेम करता हूँ। अब तो तुम्हारे बिना मैं एक क्षण नहीं जी सकता। तुम्हीं मेरी श्वास, तुम्हीं मेरी प्राण हो। और आखिर में कहा कि अब बकवास बंद करो, अब मुझे अखबार पढ़ने दो। अब बहुत हो गया, अब बकवास बंद करो, अब मुझे अखबार पढ़ने दो।

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