धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
पहली बात है, स्वस्थ चित्त की दिशा में पहला कदम, पहला सूत्र इस सत्य को देखना कि तथ्य में मैं क्या हूँ आदर्शों में नहीं। फैक्चुअलिटि क्या है? मेरी आयडियोलाजी क्या है, यह नहीं। आप क्या मानते हैं, यह नहीं। आप क्या हैं? सच्चाई क्या है आपकी?
अगर हम इसको जानने के लिए राजी हो जाएं--और इसको हम जानने को तभी राजी हो सकते हैं, जब यह व्यर्थ खयाल हमारा छूट जाए कि आदर्शों की कल्पना और आदर्शों की दौड़ में हम बदल सकते हैं, परिवर्तित हो सकते हैं। कभी कोई आदर्शों के द्वारा परिवर्तित नहीं हुआ है। ऊपर से दिखाई भी पड़े कि यह आदमी बदल गया, भीतर वही आदमी मौजूद रहेगा।
एक गांव में एक बहुत क्रोधी आदमी था। इतना क्रोधी था कि उसने अपनी पत्नी को कुएं में फेंक दिया। उसकी पत्नी मर गई। पीछे उसे पश्चात्ताप हुआ होगा। सभी क्रोधी लोग पीछे पश्चाताप जरूर कर लेते हैं। उस भांति उनका जो अपराध भाव है, समाप्त हो जाता है। वे फिर से क्रोध करने के लिए तत्पर और तैयार हो जाते हैं। पश्चाताप तरकीब है--किए गए बुरे से साफ कर लेने की स्वयं को।
उसने पश्चात्ताप किया। उसने मित्रों से कहा कि मैं बहुत दुखी हुआ हूँ। अब इस क्रोध से मुझे किसी न किसी रूप में छुटकारा पाना है। हद हो गई। यह तो सीमा के बाहर चला गया। जिस पत्नी को मैं प्रेम करता था, उसी की मैंने हत्या कर दी। यह वाक्य कितना ठीक लगता है कि जिस पत्नी को मैं प्रेम करता था, उसी की मैंने हत्या कर दी। लेकिन यह वाक्य क्या ठीक हो सकता है, क्योंकि जिसको हम प्रेम करते हैं, उसकी हत्या कर सकते हैं, लेकिन हम रोज यह कहते हैं कि जिस बच्चे को मैं प्रेम करता था, उसको मैंने चांटा मार दिया।
जिस मित्र को मैं प्रेम करता था, उससे मैंने बुरे शब्द बोल दिए। जिस पत्नी को मैं प्रेम करता था, उससे मेरा झगड़ा हो गया। झगड़ा सच है, चांटा मारना सच है, हत्या करना सच है--प्रेम का खयाल झूठा है।
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