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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

लेकिन उसके मित्रों ने कहा कि तुम्हें पश्चात्ताप हो रहा है, यह बड़ी अच्छी बात है। गांव में एक मुनि आए हुए हैं, तुम वहाँ चलो। शायद उनसे तुम्हें कोई रास्ता मिल जाए। मुनि के पास उस क्रोधी व्यक्ति को ले गए। और मुनि जो हमेशा से रास्ता बताते रहे हैं, पेटेंट, वह उन्होंने उसे बता दिया कि तुम संन्यासी हो जाओ, बिना संन्यासी हुए क्रोध इत्यादि से छुटकारा नहीं हो सकता। संसार में रहोगे, तो तो क्रोध और लोभ और मोह में फंसे ही रहोगे। यह तो संसार में स्वाभाविक है। संन्यासी हुए बिना क्रोध के बाहर तुम नहीं हो सकते हो।

वह आदमी तो दुःख में था ही। उसने अपने वस्त्र फेंक दिए, वह नग्न खड़ा हो गया। उसने कहा कि मै संन्यासी हो गया। वह मुनि भी नग्न थे। मुनि बहुत हैरान हुए और बहुत उन्होंने धन्यवाद किया उस व्यक्ति का कि ऐसा मैंने व्यक्ति नहीं देखा। इतना संकल्पवान। तत्क्षण इतनी शीघ्रता से परिवर्तित हो जाने वाला। एक तो वह बाल्या भील की कथा थी, एक दूसरी तुम्हारी है, उन्होंने कहा। लेकिन मुनि धोखे में आ गए। और पूरे गांव ने भी प्रशंसा की। लेकिन उनको पता नहीं था, यह क्रोधी आदमी का सहज लक्षण था। क्रोधी आदमी शीघ्रता से कुछ भी कर सकता है। वह उसके एंगर का ही, वह उसके क्रोधी होने का ही सबूत था। संकल्प वगैरह का सबूत नहीं था। और न ही उसके दृढ़ शक्ति वाले और विल पावर होने का सबूत था। वह सिर्फ, उसके क्रोधी होने का सबूत था। जिस शीघ्रता से उसने पत्नी को कुएं में धक्का दिया था, उतनी ही शीघ्रता से खुद को संन्यास में धक्का दे दिया। ये दोनों एक ही चित्त के लक्षण थे।

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