धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
|
5 पाठकों को प्रिय 434 पाठक हैं |
माथेराम में दिये गये प्रवचन
मौन का स्वर
एक मित्र ने आज सुबह सलाह दी है कि मैं सभी प्रश्नों के उत्तर न दूं। उन्होंने कहा है कि बहुत से प्रश्न तो फिजूल होते हैं, उनको आप छोड़ दें।
मुझे उनकी बात सुनकर एक घटना स्मरण हो आई।
एक धर्मगुरु पहली बार ही चर्च में भाषण देने गया था। उसे डर था कि लोग कहीं कोई प्रश्न न पूछे। तो अपने एक मित्र को उसने दो प्रश्न सिखा रखे थे। इसके पहले कि लोग पूछे, तुम मुझसे यह प्रश्न पूछ लेना, उत्तर मेरे तैयार हैं।
जैसे ही उसका बोलना समाप्त हुआ, उसका मित्र खड़ा हुआ। उसने पहला प्रश्न पूछा--वह वही प्रश्न था, जो कि बोलने वाले ने उसे सिखाया हुआ था। बोलने वाले के पास उत्तर भी तैयार था। उसने उत्तर दिया। वह इतना अद्भुत उत्तर मालूम पड़ा कि उस चर्च में इकट्ठे लोग अत्यधिक प्रभावित हुए। फिर उसी व्यक्ति ने खड़े होकर दूसरा प्रश्न पूछा। वह भी सिखाया हुआ था। उसका उत्तर और भी प्रभावपूर्ण था, चर्च तालियों से गूंज उठा और तभी वह मित्र तीसरी बार खड़ा हुआ और उसने कहा कि महानुभाव। आपने जो तीसरा प्रश्न पूछने को मुझे बताया था, वह मैं भूल गया हूँ।
कोई यहाँ बंधे हुए प्रश्नों के न तो बंधे हुए प्रश्न हैं, न कोई बंधे हुए उत्तर हैं। फिर एक व्यक्ति जिस प्रश्न को पूछने योग्य समझता है, वह प्रश्न चाहे कितना ही व्यर्थ क्यों न हो, मेरे मन में उस प्रश्न का आदर है। एक मनुष्य ने भी उसे पूछने योग्य समझा, इस कारण मेरे लिए तो उस प्रश्न में आदर हो जाता है। एक भी मनुष्य पृथ्वी पर उसे पूछने योग्य मानता है, यही बात काफी है कि मैं उस प्रश्न को आदर दूं।
|