धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
एक साध्वी महिला ने, और साध्वी जब कह रहा हूँ तो बहुत खयाल से। क्योंकि न तो उसके पास साधुओं के वस्त्र हैं, न उसके पास साधुओं का सारा ढोंग है। लेकिन कुछ उसने जाना है जीवन में। बहुत से लोग उसे प्रेम करते हैं। उन बहुत से लोगों ने उससे प्रार्थना की कि तुम अपना अनुभव लिख दो। मैं भी उसके गांव से निकलता था। उसने मुझसे कहा कि मैं अपना अनुभव लिखूं, ये सारे लोग मेरे पीछे पड़े हैं। लेकिन एक शर्त पर लिखूंगी कि मैं जो किताब लिखूं, आप आकर उसका उद्घाटन कर देना। मैं राजी हो गया। फिर एक वर्ष बाद मिलना हुआ।
वह किताब लिखी जा चुकी थी। उस महिला के भक्त, एक सुंदर पेटी में उस किताब को रखकर मेरे पास लाए। मैंने खोला, एक छोटी सी आठ पन्नों की किताब निकली। पन्ने सफेद नहीं थे, बिलकुल काले थे और उनमें कुछ भी नहीं लिखा हुआ था।
उस महिला ने कहा कि मैंने इतना ज्यादा लिखा है इसमें कि लिखते-लिखते पूरी किताब काली हो गई। कुछ लोग थोड़ा सा लिखते हैं तो थोड़ा काला होता है। मैंने इतना लिखा, इतना लिखा कि सब काला हो गया। और अब, अब मैं समझती हूँ, यह किताब तैयार हो गई। मेरा अनुभव इसमें है।
उसके भक्त तो हैरान हो गए। उन्होंने कहा, हम कुछ समझे नहीं कि यह क्या हुआ। तो उस साध्वी ने कहा, जिस दिन तुम्हारा मन इतना ही कोरा हो जाएगा, जिसमें कुछ न लिखा हो, उस दिन तुम उसको जान लोगे, जो है। मैं तो खाली होकर भर गई। मैंने तो सब जानना छोड़ दिया और मैं जान गई। मैंने तो सब ज्ञान भुला दिया और मैं ज्ञान को उपलब्ध हो गई। लेकिन जो मैंने जाना है, उसे शब्दों में कहना अब संभव नहीं है। शब्दों से उसे जाना भी नहीं है। निःशब्द में, मौन में उसे जाना है। यह किताब शायद तुम्हें खबर दे—मौन हो जाने को, शब्द से छूट जाने को।
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