धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
पता नहीं, वे अपने मन में हंसे होंगे या क्या किया होगा क्योंकि शायद ही यहाँ किताबों के स्टाल पर अगर एक ऐसी किताब मैं भी बिकवाऊं, जिसमें कुछ न लिखा हो तो आपमें से शायद ही कोई उसे खरीदे। लेकिन अगर कोई उसे भी खरीद ले तो समझना कि उसकी जिंदगी में समझ की शुरुआत हो गई।
मन जिस दिन कोरा हो जाता है, उस दिन कहाँ है पांडित्य, कहाँ है जानना, कहाँ है यह भ्रम कि मैं जानता हूँ और तुम नहीं जानते हो?
इन्हीं भ्रम वाले लोगों ने कि मैं जानता हूँ और तुम नहीं जानते हो--सारे गुरु-शिष्य के उपद्रव खड़े कर दिए हैं। जिसको भ्रम है, मैं जानता हूँ, वह गुरु बन जाता है। एक कुर्सी पर चढ़कर। और जिसको वह समझता है कि नहीं जानता, उसको बिठा लेता है अपने पैरों में।
वह हो जाता है गुरु, यह हो जाता है शिष्य। और यह खेल अत्यंत मूर्खतापूर्ण है, हजारों वर्ष से चल रहा है। जो जानता है, उसे खयाल भी नहीं होता कि मैं जानता हूँ--वह गुरु क्या बनेगा किसी का गुरु बनने के पागलपन का उसे खयाल भी नहीं आ सकता।
तो मैं इधर कहना शुरू किया हूँ, आध्यात्मिक जीवन में सीखने वाले लोग तो होते हैं, लेकिन सिखाने वाले लोग नहीं होते। शिष्य तो होते हैं, लेकिन गुरु नहीं होते। क्योंकि गुरुओं को कोई खयाल नहीं रह जाता, कि मैं सिखाऊं, कि मैं सिखा सकता हूँ, कि मैं किसी का गुरु हो सकता हूँ। यह खयाल, यह भ्रम हमारे अहंकार से ज्यादा नहीं है। और अहंकार को चोट लगती है। जब अहंकार को गिराने का कोई उपाय चलता है तो चोट लगती है।
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