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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

अजीब पागल आदमी था कोई। उस राजा ने कहा, पागल हो गए हो। छप्परों पर ऊंट खोया करते है। यहाँ ऊंट खोजने का क्या मतलब? छप्परों पर कहीं ऊंट खोते हैं?

तो उस आदमी ने कहा, अगर छप्परों पर ऊंट खोजने से नहीं मिलेंगे तो सिहासनों पर भी आनंद खोजने से नहीं मिलेगा। सिंहासनों पर आनंद भी नहीं खोया है। राजा उठा और दौड़ा कि उसे पकड़वा ले, कौन आदमी है। लेकिन वह नहीं मिल सका।

दूसरे दिन राजा रातभर सोचता रहा कि बात उसने क्या कही है। रातभर उसे खयाल रहा छप्परों पर--छप्परों पर नहीं मिल सकता है ऊंट, सिहासनों पर सत्य नहीं मिल सकता।

सिंहासन भी छप्पर ही है। चाहे वे सिंहासन किसी तरह के हों--संन्यास के, शंकराचार्य होने के, फलां होने के, ढिकां होने के, राजनीतिज्ञों के या किसी तरह के सिंहासन हों, उन पर सत्य मिल सकेगा?

वह भी सोचता रहा। लेकिन सुबह जब वह दरबार में गया--उदास और चिंतित था। बैठा ही था जाकर कि एक अक्खड़ आदमी अंदर घुसता चला आया। पहरेदार ने बहुत रोकने की कोशिश की कि रुको। उसने कहा, तुम रोकने वाले मुझे कोन हौ? इस घर का मालिक कोई हो तो मुझे रोक सकता है। हर किसी से मैं रुकने वाला नहीं। कौन है मालिक? नौकर भी डर गए उससे। ले गए राजा के पास कि यह है मालिक। उस आदमी ने कहा, मैं इसको मालिक नहीं मान सकता। और राजा से पूछा कि मैं इस सराय में रुकना चाहता हूँ--दो-चार दिन ठहर सकता हूँ? उस राजा ने कहा, तुम पागल मालूम होते हो। यह सराय है? यह मेरा निवास है, मैं मालिक हूँ यहाँ का।

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