धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
मैं तो सारी जो बातें कर रहा हूँ, इसी खयाल में कि किसी भांति यह अहंकार हमारा टूट जाए। यह खयाल हमारा टूट जाए कि हम जानते हैं। यह खयाल हमारा टूट जाए कि मैं संन्यासी हूँ, यह खयाल हमारा टूट जाए कि मैं कुछ हूँ, तो शायद, शायद हम उसे जान लें, जो कि हम हैं। शायद उसे पहचान लें, जो कि सबमें है। लेकिन जब तक हमें यह कुछ होने का खयाल है, यह समबडी होने का और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह कुछ होने का खयाल किस कारण है।
एक आदमी एक बड़ी कुर्सी पर बैठ जाता है तो उसे खयाल होता है, मैं कुछ हूँ। एक आदमी गैरिक वस्त्र पहन लेता है, गेरुए वस्त्र तो वह सोचता है, मैं कुछ हूँ। एक आदमी दिल्ली पहुँच जाता है, वह सोचता है, मैं कुछ हू। एक आदमी धन कमा लेता है और सोचता है, मैं कुछ हूँ। एक आदमी धन छोड़ देता है और सोचता है कि मैं कुछ हूँ। ये सारे एक ही बीमारी के बहुत-बहुत रूप हैं। इसमें कोई फर्क नहीं है।
जब तक आदमी सोचता है, मैं कुछ हूँ--चाहे वह सोचता हो, मैं संन्यासी हूँ, चाहे वह सोचता हो, मैं नेता हूँ, चाहे वह सोचता हो, मैं गुरु हूँ, चाहे वह सोचता हो, मैं त्यागी हूँ, व्रती हूँ, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ये एक ही बीमारी की अलग-अलग शक्लें हैं। बीमारी यह है कि मैं कुछ हूँ। और जहाँ यह खयाल है कि मैं कुछ हूँ, वहाँ चोट पहुँचती है।
क्योंकि जैसे ही कोई दिखाने की कोशिश करेगा कि नहीं, आप तो कुछ भी नहीं है, तो चोट पहुँचती है, तो घबड़ाहट होती है।
एक फकीर था इब्राहीम। जब फकीर नहीं हुआ था तो एक नगर का राजा था। एक रात अपने बिस्तर पर सोया था। ऐसा लगा कि छप्पर पर कोई चलता है ऊपर। तो उसने चिल्लाकर पूछा, कौन है? ऊपर ऊपर से आवाज आई, मेरा ऊंट खो गया है, उसे मैं खोजता हूँ।
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