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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

हजार-हजार रास्तों से आदमी कोशिश कर रहा है, दिखला दे कि मैं कुछ हूँ। लेकिन उसे पता नहीं कि जब तक वह दिखलाने की कोशिश कर रहा है कि मैं कुछ हूँ, तब तक--तब तक उसके भीतर एक हीनता चल रही है। और उस हीनता से वह पीड़ित है। उस हीनता को भुलाने के लिए पहाड़ चढ़ रहा है। उस हीनता को भुलाने के लिए यात्राएं कर रहा है। छप्परों पर चढ़ रहा है, ताकि सारा गांव देख ले कि सबसे ऊंचा मैं हूँ।

और अगर इसको हम कह दें कि तुम पागल हो--जितने ऊंचे तुम चढ़ते हो, उतने ही छोटे होने की तुम सूचना करते हो तो यह नाराज हो जाएगा। अब इसको नाराज करें कि इसको चढ़ने दें? इसको जाने दें, यह जहाँ भी जाए एवरेस्ट की चोटी पर चढ़े, चढ़ने दें या कि इसको कहें कि पागल मत हो जाओ?

हीनता भीतर है तो उसे तुम पहाड़ों पर चढ़कर न मिटा पाओगे। हीनता भीतर है तो भीतर ही घुसना होगा। और हीनता वहाँ है तो उसे मिटाने के रास्ते हैं। लेकिन ऊपर चढ़ने से हीनता नहीं मिट जाती है। ऊपर चढ़ने से हीनता नहीं मिटती, भीतर घुसने से हीनता मिट जाती है।

हीनता इसीलिए है कि हम स्वयं को नहीं जानते हैं। आत्म-अज्ञान के कारण हीनता है। नहीं तो आपको पता चलेगा आप क्या हो? और आपको पता चलेगा और सब कौन हैं? दिखाई पड़ेगा एक ही प्राण, एक ही जीवन, एक ही महिमा सबमें व्याप्त है, एक ही आलोक। फिर आप किससे ऊपर होना चाहोगे आपके अतिरिक्त फिर कोई बचता नहीं, या आप भी नहीं बचते हैं जो बच रहता है, उसमें न आप होते हैं, न दूसरा होता है--न मैं होता है, न तू होता है। किससे ऊपर चढेंगे, किससे नीचे उतरेंगे?

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