धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
उस क्षण सब हीनता मिट जाती है, द्वार सब सुपिरिआरिटि भी, श्रेष्ठता भी। उस दिन न आप हीन होते हैं, न श्रेष्ठ, उस दिन आप बस होते हैं। फिर कोई कंपेरिजन नहीं होता, क्योंकि कंपेअर करने को कोई नहीं होता। कोई तुलना नहीं होती। ऐसे व्यक्ति को तो मैं धार्मिक कहूँगा।
लेकिन ऐसे व्यक्ति को धार्मिक नहीं कह सकता, जो अभी कह रहा है कि तुम गृहस्थ हो, मैं संन्यासी हूँ, तुम पापी हो, मैं पुण्यात्मा हूँ, तुम हीनात्मा हो, मैं महात्मा हूँ। यह जो आदमी है, क्या कर रहा है और इसने जो तरकीब निकाल ली है, वह ज्यादा गहरी है उस आदमी से, जो कह रहा है मैं धनवान हूँ, तुम गरीब हो। उससे ज्यादा गहरी है। धनवान को भी दिखाई पड़ता है, धन छिन सकता है, चोरी जा सकता है, कल वह भी गरीब हो सकता है। लेकिन यह त्याग और संन्यास ऐसी चीजे हैं कि न चोरी जा सकते, न खो सकते, न इनको कोई छीन सकता। ये ज्यादा स्थाई सपंत्तियां हैं।
इसलिए जो लोग बहुत लोभी हैं, वे तिजोरी छोड़ देते हैं और स्थाई तिजोरी की खोज में निकल जाते हैं। संन्यासी हो जाएं, परमात्मा को पकड़ लें--क्या करें, क्या न करें। वे ऐसी संपत्ति खोजते हैं, जिसे कोई छीन न सके। यह बहुत गहरी ग्रीड, यह बहुत गहरे लोभ से पैदा होने वाली वृत्ति है, इसको हम कहें या न कहें।
एक गांव में मैं था। मुझसे पहले एक संन्यासी बोले और उन्होंने कहा, अगर आप लोभ छोड़ देंगे तो स्वर्ग उपलब्ध होगा। मैं उनके पीछे बोलता था। मैंने पूछा कि बड़ी अजीब बात आपने कही है, कि अगर आप लोभ छोड़ दें तो स्वर्ग उपलब्ध होगा। और स्वर्ग उपलब्ध करने की जो कामना है, वह लोभ नहीं है?
तो यहाँ इन सुनने वालों में जितने लोभी होंगे--बहुत ज्यादा, जो कम लोभी होंगे, वे सोचेंगे छोड़ो स्वर्ग को, अपना लोभ ही ठीक है। जो जरा ज्यादा लोभी होंगे, वे कहेंगे छोड़ो धन-संपत्ति को, स्वर्ग को पा लेना ज्यादा उचित है। तो ऊपर से दिखाई पड़ेगा वे लोभ छोड़ रहे हैं--लोभ छोड़ नहीं रहे, वे लोभ के कारण ही, लोभ की वजह से ही धन-संपत्ति छोड़ रहे हैं कि स्वर्ग उपलब्ध हो जाए। यह स्वर्ग का कामी, लोभी चित्त है। मोक्ष का कामी भी लोभी चित्त है। परमात्मा को पाने की कोशिश में लगा हुआ भी लोभी चित्त है। इसको कहे या न कहे।
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