धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
पहले रास्ते के गड्ढे तो जान लो।
हम सब भी आकाश के तारे देखकर चल रहे हैं। आदर्श--वहाँ पहुँचना है, वहाँ पहुँचना है।
बिना इस बात को जाने हुए कि हम कहाँ खड़े हुए हैं, हम कहाँ चल रहे हैं। आदर्श कल्पना में है। जिंदगी, तथ्य सामने है। उस तथ्य को देखना जरूरी है। और आदर्शों के कारण हम उसे देखने से बचते हैं। इसलिए सारे आदर्शों से चित्त मुक्त हो जाना चाहिए।
घबड़ाहट क्यों लगती है?
घबड़ाहट इसलिए लगती है कि आदर्शों से मुक्त होते ही हमें भलीभांति पता है कि हम क्या हैं और जैसे ही हम उसको जानेंगे, हमारे भीतर घबड़ाहट होती है कि हम तो कुछ भी नहीं हैं। आदर्श में तो हम मान लेते हैं कि अहं ब्रह्मास्मि, मैं ईश्वर हूँ, फलां हूँ, ढिकां हूँ। यह बड़ी मजेदार बातें हैं। मैं ब्रह्म हूँ, मैं आत्मा हूँ, मैं यह हूँ, मैं वह हूँ, मैं अविनाशी तत्व हूँ, अजर-अमर, ये सब हम आदर्श में मान लेते हैं।
नीचे लौटकर देखेंगे तो घबड़ाहट होगी कि मौत पास आ रही है। यह अजर-अमर आदर्शमय है, लेकिन इधर मौत पास सरकती आ रही है, रोज। मौत तथ्य है। यह अमरता बातचीत है। अमरता की बातचीत में मौत को कब तक झुठलाइएगा। और मौत को जितने दिन झुठला रहे हैं आप, उतने दिन आप धोखे में हैं।
तो मैं यह कहता हूँ अमरता की बातचीत छोडिए, मौत को देखिए। और मेरा निवेदन यह है कि जिस दिन आप मौत को पूरी तरह देखेंगे, उसी दिन जो अमर है आपके भीतर, उसका दर्शन हो जाएगा। मौत के परिपूर्ण दर्शन से अमृत का अनुभव होता है। लेकिन जो मौत को ही देखने से डरता है--और मौत को देखने से डरने के कारण अमरता की बातचीत करता रहता है, वह मौत को ही नहीं देख पाता, अमृत को कैसे देख पाएगा?
मौत को देखने के साहस से ही--मौत का आमना-सामना, एनकाउंटर करने से ही, जो आपके भीतर अमृत है, उसकी झलक मिलनी शुरू होती है।
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