धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
शब्द इशारे हैं। अगर मैं चांद को अंगुली बताऊं और कहूँ यह चांद है, आप मेरी अंगुली पकड़ लें कि कहाँ है, आपने अंगुली बताई थी, अंगुली में चांद कहाँ है? मैं भी मुश्किल में पड़ जाऊंगा और आप भी। मैं कहूँगा, क्षमा करें, कृपा करें मेरी अंगुली छोड़ें। अंगुली से चांद दिखाया था, अंगुली चांद नहीं थी। कभी भूलकर नहीं कहा था कि अंगुली चांद है। कहा था कि इधर चांद है--आपको अंगुली दिखाई पड़ी। चांद तक तो आँख उठाने की कोशिश न की, अंगुली पकड़ ली।
अब ऐसे ही हम सब अंगुलियां पकड़े हुए हैं--शास्त्रों की भी, शास्ताओं की भी। और कोई भी कुछ कह रहा है तो हम उसकी अंगुली जल्दी पकड़ने को तैयार हैं। लेकिन चांद की तरफ देखने की और चांद की तरफ तभी देख सकेंगे, जब अंगुली को बिलकुल छोड़ दें और भूल जाएं। अंगुली पर आँख न रह जाए तो चांद दिखाई पड़ सकता है।
तो मैं जो शब्दों का उपयोग कर रहा हूँ, बड़ी मजबूरी में, बड़ी हेल्पलेसनेस में--बड़ी असहाय अवस्था है शब्दों का उपयोग करने में। क्योंकि जो मैं कहना चाहता हूँ, वह शब्दों के बाहर है, और शब्दों में उसे कहना है। कहने का और कोई उपाय नहीं है। तो अगर शब्द पकड़ लेंगे तो एक मजाक हो जाएगी और कुछ भी नहीं होगा। तो शब्द में जो इशारा, जो संकेत है, शब्द के पीछे छिपी हुई जो--जो आकांक्षा है, शब्द के पीछे छिपी जो आत्मा है, उस पर।
एक सितार रखी हो और कोई समझ ले कि तार और यह सितार का सारा ढांचा और यंत्र, यही संगीत है तो भूल में पड़ जाएगा। न तो सितार का ढांचा संगीत है, न सितार के तार संगीत हैं। ढांचा और तार तो केवल एक इशारा बन जाते हैं, किसी और चीज को जन्मने के लिए। संगीत कुछ और ही है। लेकिन अगर कोई सितार को ढोता फिरे दिन-रात कि मैं संगीत का बड़ा प्रेमी हूँ तो वह गलती में हो गया। उसने शरीर को पकड़ लिया संगीत के, आत्मा पर उसका खयाल न गया।
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